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________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ ३४० कुमारपाल पश्चात् उठकर और शेष बीस मुद्राओं को ग्रहण कर स्थित हुआ । बिल से निकलकर और उन मुद्राओं को नहीं देखता हुआ चूहा भी हृदय-स्फोटन से मरा । उसे देखकर खेदित हुआ कुमारपाल सोचने लगा कि धनों में, जीवितव्यों में, स्त्रियों में और अन्नों में सर्वदा ही अतृप्त सभी प्राणी मर गये हैं, मर जायेंगें और मर रहे हैं। उस पाप के प्रायश्चित्त पद में प्रथम व्रत ग्रहण के समय में उसी स्थल में जाकर उसने उंदरिका-विहार प्रासाद किया । आज भी वह वहाँ पर हैं। J अब एक बार शाकंभरी का राजा और अपने बहन का पति आनाक पत्नी के साथ शतरंज और पाँसों से क्रीड़ा करता हुआ हास्य से कहने लगा कि - हेमसूरि आदि मुंडकों को मार दो । तब पत्नी ने कहा कि- इस प्रकार से नहीं कहा जाता है, मारि का निवारण करनेवाले वें मेरे भाई के गुरु हैं। जब वह इस प्रकार पुनः पुनः कहता है, तब कुपित हुई रानी कहती हैं कि - रे जंगड़क ! जीभ को संभालो, यदि तुम भार्यापने से मुझसे नहीं डरते हो तो भी मेरे भाई का भी भय नहीं हैं ? यह सुनकर रुष्ट हुए उसने पत्नी को पाद-प्रहार से मारा । पत्नी ने कहा कि - यदि मेरे भाई के समीप में अवट मार्ग से तेरी जीभ को खींचाऊँगी, तब मुझे राज - पुत्री मानना । इस प्रकार से कहकर और पाटण में जाकर उसने स्व भाई से प्रतिज्ञा कहीं । अपनी सेना से घेरा हुआ चौलुक्य राजा कुमारपाल शाकंभरी में गया । तीन लाख घोड़े, पाँच सो हाथी और दस लाख सैनिकों से घेरा वह भी संमुख आया । बड़ी सेना को देखकर आनाक ने धन देकर कुमारपाल सैन्य का भेदन किया । संग्राम के होते सामंतों को उदासीन देखकर राजा ने महावत से कहा कि- क्यों सैन्य युद्ध I
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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