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उपदेश-प्रासाद - भाग १ भुजा-स्फोट करते हुए स्व-शत्रु तथा सैन्य सहित धर्म-राजा को निज देश में अवकाश देनेवाले चौलुक्य-सिंह कुमारपाल के प्रति युद्ध करने लगें । उनको भी धर्म-राजा के सदागम रूपी मंत्री द्वारा दी हुई बुद्धि से क्षण में ही जीता । इस प्रकार से राजा की साहस प्रबलता को देखकर आनंदित हुए धर्म-राजा ने अपनी पुत्री कृपासुंदरी उसे दी। श्रीमद् अर्हत् देव के समक्ष धर्म-ध्यान भेद रूपी चवरिका में नव-तत्त्व रूपी वेदी में प्रदीप्त हुए अग्नि में, भावना रूपी घी के प्रक्षेपन से चार मंगल है, इस प्रकार वेदोच्चार पूर्वक श्रीहेमाचार्य रूपी ब्राह्मण ने वधू सहित राजा को प्रदक्षिणा दी । उसके बाद
पाणि-मोचन पर्व में धर्म ने अपने जमाई को सौभाग्य, आरोग्य, दीर्घ आयु, बल रूपी अनेक सौख्य दीएँ ।
तत्पश्चात् राजा ने कृपा को पट्ट-देवी पद दिया ।
अब एक बार पूर्व में पृथ्वी के ऊपर पर्यटन करते हुए राजा ने कीये हुए पाप को स्मरण किया । वह इस प्रकार से हैं
कुमारपाल दधिस्थली में जाते हुए मार्ग में वृक्ष की छाया में विश्राम किया । वहाँ उसने चूहे को बिल से चाँदी की मुद्रा को बाहर निकालते हुए देखा । यह कितनी मुद्राएँ निकाल रहा है, इस प्रकार वह जब देखने लगा, तब उसने इक्कीस मुद्राएँ निकाली । उसके ऊपर नृत्य कर और सो कर तथा एक मुद्रा को लेकर उस चूहे ने बिल में प्रवेश किया । कुमारपाल सोचने लगा कि
न ही भोग हैं और न गृह आदि कार्य करण है, राजा को अथवा अन्य को भी कुछ-भी देने योग्य नहीं हैं, न ही सत्कृति है, न सुकृत और न ही सत्-तीर्थयात्रा आदि है । तो भी जो लोलुप बुद्धिवालें सूच्याननादि धन को ग्रहण करतें हैं, उससे मैं मानता हूँ कि अहो ! भुवन को एक मोहित करनेवाला इससे कोई दूसरा नहीं हैं।