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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ ३३७ को बजवाया। शिकारी, कसाई, मच्छीमार, शराब बेचनेवालें आदि के पाटकों को तोड़ दीये और उनसे प्राप्त द्रव्य को छोड़ दिया । उनको भी निष्पाप वृत्ति से निर्वाह कराया। एक दिन कुल-देवी कृत कुष्ठ-देहवाले राजा को देखकर मंत्री वागभट्ट ने कहा कि- हे स्वामी ! आत्मा की रक्षा के लिए देवी को पशु दें । यह सुनकर राजा ने कहा कि- अहो ! भक्ति से ग्रथिल हुआ निःसत्त्व वणिग् वचनों को कह रहा है, इत्यादि । तथा राजा ने इस प्रकार से कहा कि- सुनो, भव-भव में प्राणियों को भव का कारण ऐसा देह प्राप्त होता है, किन्तु सर्वज्ञों के द्वारा कहा गया और मुक्तिकारी अहिंसा-व्रत प्राप्त नहीं होता हैं। श्वास चपल-वृत्तिवाला है और जीवन उसके सदृश ही है, उसके लिए मैं स्थिर और मोक्षकारी कृपा को कैसे छोडूं ? इस प्रकार धर्म की दृढ़ता से राजा रोग रहित हुआ। . एक बार गुरु को प्रणाम कर राजा स्थित हुआ था, तब गुरु कहने लगे कि हे राजन् ! जो तुम यहाँ ऐसे कष्ट में भी अर्हत्-शासन से भ्रष्ट नहीं हुए हो, तो तुझे परमार्हत इस प्रकार का बिरुद हो । इस प्रकार से राजा के मुख में, मन में, गृह में, देश में और पुरुषों में स्थान को प्राप्त नहीं करती हुई हिंसा स्व-पिता मोह के समीप में गयी । मोह भी चिर काल के पश्चात् देखकर नहीं पहचानते हुए उससे कहने लगा कि- हे सुंदरी ! तुम कौन हो ? उसने कहा किहे पिताजी ! मैं आपकी प्रिय पुत्री मारि हूँ। मोह ने पूछा कि- तुम दीन क्यों हो ? उसने कहा- पराभव से । वह किसने किया है ? इस प्रकार मोह के पूछने पर उसने कहा कि- हे पिताजी ! मैं अब क्या कहूँ ?
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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