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________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ ३३६ तीन सो और तिरसठ परस्पर विरुद्ध दर्शन के भेद हैं । जो अहिंसा को दूषित नहीं करते है और जहाँ ही वह सकल भी है उसे तुम ग्रहण करो । इस प्रकार से अच्छी तरह से धर्म को जानकर भी राजा लोकलज्जा आदि से मिथ्यात्व को छोड़ने की इच्छा नहीं करता था, क्योंकि काम - राग और स्नेह - राग, दोनों भी शीघ्रता से निवारण कये जा सकतें हैं, किन्तु अत्यंत पापी दृष्टि-राग तो सज्जनों को भी दुरुच्छेदनीय हैं। कुमारपाल ने सूरि को कहा कि - हे भगवन्! कुल, देश और धर्म का उल्लंघन नहीं करना चाहिए, तथा नीति में निपुण निन्दा करें, इत्यादि से कुलाचार का त्याग योग्य नहीं हैं। गुरु ने कहा किहे राजन् ! यह हित-वाक्य शुभ कर्म को आश्रय किया हुआ है । कुल से प्राप्त हुई भी पीड़ा और दरिद्रता के निवारण में कौन अभिलाषावाला न हो ? - पर प्रत्यय मात्र बुद्धि जब तक प्रवर्तित होती है, तब तक अपाय के मध्य में स्व मन को अर्थों में जोड़ें, आप्त-वाद आकाश के मध्य से नहीं गिरतें हैं । लोह भार वाहक तुल्य कोई मूढ़ स्व कदाग्रह को नहीं छोड़तें हैं और वें दुरन्त संसार में गिरतें हैं । इसलिए हे राजन् ! सर्व दया-मूल धर्म ही प्रामाण्य को प्राप्त होता है, उससे भ्रान्ति को छोड़कर तुम दया- धर्म में स्थिर बनो । इत्यादि युक्ति से प्रतिबोधित हुए उसने प्राणातिपात विरमण व्रत को ग्रहण किया । तत्पश्चात् चारों वर्णों में जो कोई भी स्व अथवा अन्य के लिए जीवों को मारता है, वह राज-द्रोही है, इस प्रकार पटह
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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