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उपदेश-प्रासाद
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भाग १
राजनीति को स्थापित की थी । दिग्विजय करते हुए राजा ने ग्यारह लाख अश्व, ग्यारह लाख हाथी, पचास हजार रथ, बहोत्तर सामन्त, अठारह लाख सेनानी, इत्यादि ऋद्धि को अपने क्रोड़ स्थान में की थी।
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कुमारपाल का दिग्विजय मान श्रीवीर चरित्र में इस प्रकार से कहा गया है
पूर्व दिशा में गंगा पर्यंत, दक्षिण दिशा में विन्ध्य पर्यंत, पश्चिम में सिन्धु पर्यंत और उत्तर दिशा में तुरुष्क पर्यंत चौलुक्य ने पृथ्वी साधी थी ।
एक बार सर्व अवसर सभा में स्थित राजा के प्रतिबोध के लिए श्रीहेमचंन्द्रसूरि आयें । उनको देखकर राजा ने आसन दिया । गुरु द्वारा कीये हुए उपकारों का संस्मरण कर और वंदन कर वह पूछने लगा कि - सर्व धर्मों में कौन-सा धर्म श्रेष्ठ हैं ? गुरु कहने लगें कि - हे राजन् !
अहिंसा श्रेष्ठ धर्म हैं और सर्व शास्त्रों में यह प्रख्यात हैं। जहाँ जीव - दया नहीं है, उन सर्व धर्म को छोड़ दो ।
हे युधिष्ठिर ! निश्चय से प्राणि-वध यज्ञ में नहीं है, यज्ञ तो अहिंसक है और सर्व प्राणियों में अहिंसा ही धर्म-यज्ञ हैं । मीमांसा में
जो हम गहन अंधकार में स्नान करते हैं और पशुओं से यज्ञ करते हैं । उस हिंसा से धर्म होता है, यह नहीं हुआ है और न ही होगा । जैनागम में भी
धर्म है, धर्म है इस प्रकार विविध रूपों से जगत् में धर्मनेता घोषणा करते हैं । जैसे स्वर्ण की तीन परीक्षाओं से परीक्षा करतें हैं, वैसे उस धर्म की परीक्षा करनी चाहिए ।