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उपदेश-प्रासाद
भाग १
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रही हैं। यह सुनकर कुतूहल से युक्त सभ्य उसके पूर्व-भव को पूछने लगें। साधु समलिका के प्रतिबोध के लिए कहने लगें कि
भरत - खंड में श्रीपुर में धन्य श्रेष्ठी था, उसकी पत्नी सुंदरी थी, वह दुःशीला थी । एक दिन उपपति ने उसे इस प्रकार से कहा कि- आज के पश्चात् तुम मेरे पास में मत आना, मैं तुम्हारें पति से डर रहा हूँ । सुन्दरी ने कहा कि- हे प्रियतम ! तुम ऐसा मत कहो । अल्प दिनों के मध्य में ही मैं वैसा करूँगी, जिससे कि पति को मारने से हम दोनों को भय नहीं होगा ।
एक दिन पति को मारने के लिए उसने दूध के मध्य में विष · डाला । पति को पीरसने के लिए जब वह उसे लाने के लिए गृह-मध्य में गयी, तब सर्प के डँसने से गिरकर मरण को प्राप्त हुई । धन्य विक्षोभ सहित भोजन से उठा । हा ! यह क्या हैं ? इस प्रकार से कहते हुए प्राण-रहित उसे देखकर, उसके चरित्र को नहीं जानने से वह स्नेह से विलाप करने लगा । वह मरकर सिंह हुई । उस वैराग्य से धन्य श्रावक ने दीक्षा ग्रहण की। एक दिन वन में कायोत्सर्ग में वे स्थित थें । विधि-वशात् वहाँ आये सिंह ने वैर से उन्हें मार दिया। ऋषि अच्युत स्वर्ग में गये और सिंह चौथी नरक में ।
स्वर्ग से धन्य का जीव चंपा में दत्त श्रेष्ठी का पुत्र वरदत्त नामक हुआ । बाल्य-काल से भी विवेकी, दानी, दया में तत्पर उसने सम्यक्त्व लिया । सुन्दरी का जीव नरक से निकलकर, भवों में भ्रमण कर वरदत्त के गृह में कामुका दासी का पुत्र हुआ । वह दासीपुत्र इस प्रकार के नाम से प्रसिद्ध हुआ । वह वरदत्त को शत्रु के समान देखता तो भी उसके रंजन के लिए कैसे भी दया का पालन करता था । उसे धर्मिष्ठ जानकर संतुष्ट हुए श्रेष्ठी ने इस प्रकार से सोचा कि - यह मेरा धर्म - बान्धव हैं, परंतु कर्म से नीच कुल में उत्पन्न हुआ हैं ।
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था,