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उपदेश-प्रासाद - भाग १ श्रीजैन-मार्ग में निश्चय से कुल प्राधान्य नहीं हैं, क्योंकि-यहाँ पर कुल प्रधान नहीं हैं । इस प्रकार से विचारकर उसे जनों के समक्ष भाई के रूप में स्थापित किया । लोक में भी उस श्रेष्ठी का भाई हैं, इस प्रकार से प्रसिद्धि हुई । वह भी माया से खुद को भक्त के रूप में ज्ञापन करता था, किन्तु मन में गृह-स्वामी होने के लिए श्रेष्ठी को मारने के लिए विविध उपायों को करता था, जैसे कि- मुख कमल-दल के आकार के समान हैं, इत्यादि लक्षणों से जानें ।
एक दिन उसने शयन के समय विष से लिप्त पान के बीड़ें श्रेष्ठी को दीये । कीये हुए चतुर्विध-आहार प्रत्याख्यान का स्मरण कर श्रेष्ठी उनको शीर्ष के ऊपर रखकर सो गया । प्रातः काल में नमस्कार -स्मरण में रत वरदत्त देवों को नमस्कार करने के लिए गया। इस ओर वरदत्त की पत्नी प्राप्त हुए उन पत्रों को लेकर और गृहांगण में दासीपुत्र को देखकर कहने लगी कि- हे देवर ! तांबूल को ग्रहण करो। स्त्री के रूप, गति, कंकण आदि मनस्कवालें और स्त्री के द्वारा मधुर वचन से आलापित तथा संतुष्ट हुए उसने भी उन पत्रों का भक्षण किया । वह सहसा ही भूमिकेऊपर पड़ा और आर्तध्यान सेमरण प्राप्त हुआ। मरकर वह यह समलिका हुई हैं। उस स्वरूप को देखकर
और निज वित्त को सुक्षेत्र में बोकर भव के वैराग्य से उस श्रेष्ठी ने प्रव्रज्या ग्रहण की । वह मैं हूँ और इस प्रकार से मैंने इस चरित्र को कहा हैं । तब वह समलिका पूर्व भवों को सुनकर जाति-स्मरण से युक्त हुई वृक्ष से उतरकर और गुरु के पैरों में गिरकर निज दुश्चरित्रकी क्षमा माँगने लगी । पश्चात् मुनि के वचन से अनशन को स्वीकार कर स्वर्ग में गयी । राजा आदि ने अहिंसा आदि धर्म का स्वीकार किया । मुनि मोक्ष में गये।
हिंसा का विकल्प भी अति दुःख दाता हैं, इस प्रकार से