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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ ३३१ चराचर जन्तुओं की हिंसा को छोड़ दें, पंडित जन उस भव की हिंसा को छोड़कर और अपने आत्मा की हिंसा न करें। इस प्रकार से संवत्सर के दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश-प्रासाद ग्रन्थ की वृत्ति में पञ्चम स्तंभ में छासठवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ। सड़सठवा व्याख्यान अब कोई पुरुष हिंसा का मनोरथ करता हैं, उससे वह स्वयं ही दुःखी होता हैं, इसे कहते है कि यदि संकल्प से अन्य की हिंसा का चिंतन करें, तो उस पाप से निज आत्मा ही दुःख से संयुक्त पृथ्वी में गिराया जाता हैं। इस विषय में यह दासी-पुत्र का प्रबन्ध हैं कौशाम्बी में महीपाल राजा था । उसके उद्यान में तृतीय ज्ञानधारी वरदत्त-ऋषि ने नर-समूह के मध्य में धर्म-देशना प्रारंभ की, जैसे कि स-अपराध और निरपराधी जन के ऊपर जैन दया करतें हैं। चन्द्रमा, राजाऔर चांडाल के घरों के ऊपर समान कांति को करता हैं। इत्यादि धर्मको कहते हुए गुरु अकस्मात् ही हँसे । तब आश्चर्य से युक्त हुए सभा-जनों ने पूछा कि- हे भगवन् ! आगम में हास्य से सात-आठ प्रकार का कर्म-बन्ध कहा हैं । मोह को जीतनेवालें आप जैसों को अप्रस्ताव में क्यों हास्य उत्पन्न हुआ हैं ? साधु ने कहा किहे भद्रों ! तुम सुनो । नीम के पेड के शिखर पर इस समलिका को तुम देखो । यह पूर्व-भव के वैर से दोनों पैरों से मुझे मारने की इच्छा कर
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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