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उपदेश-प्रासाद - भाग १ जिसप्रकार से हैं -
__ श्वास, खाँसी, ज्वर, दाह, उदर-शूल, भगंदर, मसा, अजीर्ण, दृष्टि और मस्तक शूल, अरुचि, आँख की वेदना, खुजली, कान की वेदना, जलोदर और कुष्ठ-यें रोग प्राणी को पीड़ित करतें
हैं।
दुष्टों को, दुर्जनों को, पापीयों को, क्रूर कर्म करनेवाले को और अनाचार में प्रवृत्त होनेवाले को उसी भव में पाप फलित होता
क्रोध और लोभ से अनेक पाप-वृन्द कर उसने भी अखिल काल को पाप-कर्म से ही व्यतीत किया । इस प्रकार से ढाई सो वर्ष आयुको भोगकर यहाँ पर उत्पन्न हुआ है, परंतु इसकी माता राब कर मुख के बिना इसके देह में डालती हैं । वह आहार रोम आदि के छिद्र से मध्य में प्रवेश कर पूय और रक्त आदि भाव को प्राप्त कर बाहर निकलता हैं । इस प्रकार महा-दुःख से छब्बीस वर्ष की आयुको पूर्ण कर नरक में जायगा । वहाँ से सिंहत्व को, पुनः आद्य नरक में, वहाँ से सर्पत्व को, पश्चात् द्वितीय नरक में, तत्पश्चात् पक्षी होकर तृतीय नरक में, इस प्रकार से अन्तराल भवों से तमस्तमा पर्यंत जानों । वहाँ से मत्स्यत्व को, तत्पश्चात् स्थलचरों में और खेचरों में वहाँ से चतुरिन्द्रियों में, तत्पश्चात् पृथ्वी आदि में । इस प्रकार से चौरासी लाख योनियों में बहुत बार भ्रमण कर अकाम-निर्जरा से कर्मों की लाघवता से प्रतिष्ठानपुर में श्रेष्ठी-पुत्र होगा । वहाँ पर साधुओं के संग से धर्म को प्राप्त कर सौधर्म में देव होगा। वहाँ से च्यवकर क्रम से सिद्धि को प्राप्त करेगा । इस प्रकार से श्रीवीर ने लोढक का संबन्ध कहा।
इस प्रकार से कथानक को सुनकर आस्तिक जन बहुत