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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ ३२८ छासठवा व्याख्यान अब निरंतर ही षड्जीव निकाय की हिंसा में रक्त हुए को फल मिलता है वह कहा जाता हैं निरंतर जो निरपराध जन्तुओं का वध करतें हैं, असंयत और दया-रहित वें भव रूपी गुफा में भ्रमण करते हैं । भावार्थ तो इस प्रबन्ध से जाना जाय । तथा पुष्पमाला की वृत्ति में कहा गया है कि जीवों के वध, बंधन और मारण में रत तथा बहुत दुःख को उत्पन्न करनेवाले मृगावती के पुत्र के समान सकल दुःखों के भाजन होतें हैं। वध-यहाँ जन्तुओं को ताड़न आदि पीड़ा रूप ग्रहण किया गया हैं । बन्ध-रस्सी आदि से जन्तुओं का नियंत्रण । मारण-उनके ही प्राणों का वियोजन रूप हैं। उनमें संलग्न हुए । तथा जीवों को अभ्याख्यान आदि से बहुत दुःख उत्पन्न करते हुए । मृगावती के पुत्र के समान समस्त दुःखों के पात्र होते हैं, यह अर्थ हैं। अब इस विषय में विपाकसूत्र के अनुसार से मृगापुत्र कथानक को लिखा जाता हैं श्रीवीर ने पृथ्वी को पवित्र करते हुए मृगग्राम के उद्यान में समवसरण किया । ज्येष्ठ गणधर मृगग्राम में गोचरी के लिए आये। एषणीय अन्न आदि को ग्रहण कर वापिस आते हुए रणकार करती हुई मक्खियों के समूहवाले, पद-पद पर स्खलित होते हुए और दुःख के मंदिर ऐसे एक अन्ध और कुष्ठि वृद्ध नर को देखकर तथा प्रभु के समीप में आकर प्रभु से पूछा कि- हे स्वामी ! मैंने आज एक महादुःखी नर को देखा हैं, विश्व में वैसा कोई होगा? भगवान् ने कहा किहे गौतम ! यह बड़ा दुःख नहीं हैं, क्योंकि इसी गाँव में विजय राजा की
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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