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________________ ३२७ उपदेश-प्रासाद - भाग १ के लिए प्रथम मंत्री भेजा जाय । वर्धापन दान के ग्रहण में उत्सुक हुआ मंत्री भी अग्नि में गिरते ही भस्म-अवशेषता को प्राप्त हुआ । हरिबल ने राजा से कहा कि- हे स्वामी ! आप पर-स्त्री के अंग के संग की बुद्धि को छोड़कर चिर समय तक जीओ । स्वामी-द्रोह को महा-पाप मानकर मैंने मृत्यु से आपका रक्षण किया है, फिर से भी आपको पाप बुद्धिवाले मंत्री का दर्शन नहीं होगा । यह सुनकर रांजा खेद वहन करते हुए स्व-गृह में गया । हरिबल के चातुर्य को देखकर राजा ने स्व-कन्या का विवाह उससे कराया। अब काञ्चनपुर के राजा ने मुसाफिर के वचन से अपनी पुत्री और हरिबल का वृत्तान्त सुना । हरिबल को बुलाकर उस जमाई को स्व-राज्य दिया । हरिबल राजा ने स्व-राज्य में अमारि की उद्घोषणा करायी। अब एक बार विहार के क्रम से आये गुरु को वंदन कर उसने धर्म-वाक्य सुना । उसने स्व-देश में सातों व्यसनों का निवारण किया । स्व-पद पर अपने पुत्र को संस्थापित कर स्वयं ने तीनों देवीयों के साथ में प्रव्रज्या ग्रहण कर मुक्ति को प्राप्त की। इस प्रकार से हे भव्यों ! यहाँ पर भी पूर्ण फलवालें हरिबल चरित्र का विचारकर तुम पुण्य से प्राप्त जयवाली ऐसी जीव-दया में प्रयत्न करो। विस्तार से इसका चरित्र प्रतिक्रमण सूत्र की बृहवृत्ति से जानें। इस प्रकार से संवत्सर-दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश-प्रासाद ग्रन्थ की वृत्ति में पञ्चम स्तंभ में पैंसठवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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