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उपदेश-प्रासाद - भाग १
३२५ . राजा, सर्प, अधम, चोर, क्षुद्र-देव, हिंसक-प्राणि, शत्रु, शाकिनी-छल के बिना निष्फल आरंभवालेंदुष्ट भी क्या कर सकते हैं?
एक बार हरिबल ने भावी अनर्थ का विचार कीये बिना मंत्री आदि के साथ राजा को भोजन के लिए निमंत्रित किया । वहाँ पर स्त्री के लावण्य को देखकर अत्यंत काम से पीड़ित हुए राजा ने मंत्री से स्व-अभिप्राय कहा । मंत्री ने कहा कि- हे स्वामी ! यम राजा के आह्वान के बहाने से यह अग्नि में डाला जाय तो इच्छित होगा।
एक दिन राजा ने हरिबल को बुलाकर कहा कि- हे सात्विक शिरोमणि ! तेरे बिना अन्य कौन अग्नि के मार्ग से जाकर मेरे गृह में यम को निमंत्रित कर सकता है ? यह सुनकर राजा को मंत्री से बुद्धि प्राप्त जानकर और राजा का आदेश प्रमाण कर, स्व-गृह में जाकर सोचने लगा, जैसे कि
दुर्जनों पर किया हुआ उपकार भी महान् पुरुषों को अत्यंत दोष का कारण होता हैं । अनुकूल आचरण से व्याधियाँ अत्यंत कुपित होती हैं।
अब राजा ने चिता करायी । स्व-देव का स्मरण कर और जलती हुई अग्नि में प्रवेश कर तथा स्वर्ण के समान ही दीप्तिमंत देह वाला बना हुआ हरिबल भी तत्क्षण स्व-गृह में गया, परंतु देव प्रभाव से किसी ने भी उसे नहीं देखा।
इस ओर राजा निर्भय होकर और हरिबल के गृह में आकर दोनों स्त्रियों से काम-भोग की याचना करने लगा । तब दोनों स्त्रियाँ कहने लगी कि- हे स्वामी ! आपके सेवक की स्त्रियों से आलिंगन के वाक्य को कहना योग्य नही हैं, क्योंकि
पहरेदार से चोरी, रक्षक पुरुषों से धाड पाडना, पानी से अग्नि और सूर्य से अंधकार के प्रसरण समान ही यह हैं ।