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________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ ३२३ I 1 मेरी स्वच्छन्दता के त्याग के लिए वह यहाँ मुझे मंत्र से मृत के समान कर बाहर जाता हैं । स्वजनों से दूर किया हुआ यह पुनः ही आकर और अमृत का सिंचन कर जीवित करता हैं । इसके दोष से कदाचित् मेरी मृत्यु होगी, इसलिए इसी लग्न वेला में तुम मेरा पाणिग्रहण करो, जिससे कि मैं चिर समय तक जीऊँ । हरिबल ने वैसा ही किया, तब उस कन्या ने कहा कि - हे स्वामी ! बटुक के भय से हम दोनों का यहाँ से गमन ही योग्य हैं, अशक्य ऐसे बिभीषण के निमंत्रण से रहा, परंतु यहाँ पर आगमन के विश्वास की उत्पत्ति के लिए तुम्हारें राजा के आगे बिभीषण के पहचान के रूप में चन्द्रहास तलवार को लाकर किसी उपाय से मैं ले आऊँगी । उसने अत्यंत गुप्त रीति से तलवार को रखने के लिए हरिबल को अर्पित की। स्त्री की बुद्धि से आश्चर्य चकित हुआ वह उस तुंबी, स्त्री और तलवार को लेकर नगर से बाहर निकला । । - अब गृह में हरिबल के चलने के पश्चात् राजा गुप्त रीति से उसके गृह में जाकर उसके स्त्री के प्रति देह संग की प्रार्थना करने लगा। वह भी अंदर द्वेष और विषाद को छिपाकर कहने लगी कि हे राजन् ! आप मेरे पति की शुद्धि की निर्णय अवधि तक प्रतीक्षा करो । राजा भी सोचने लगा कि - यह भी मेरे वश में ही हैं, किन्तु पति- मृत्यु के निर्णय की अपेक्षा कर रही है, उससे मैं भी उसे कपटक की वृत्ति से करता हूँ । इस प्रकार से सोचकर और उसके वाक्य की अनुमति कर गृह में गया । अब हरिबल स्व-नगर के उद्यान में कुसुमश्री को छोड़कर गुप्त - रीति से स्व- आश्रम में आया । स्वामी को देखकर वह भी विरह-व्यथा को कहने लगी । पश्चात् दोनों ने परस्पर बनें हुए वृत्तांत के बारे में कहा । अब राजा के इच्छित का मर्दन करने के लिए, राजा
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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