SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 337
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३२२ उपदेश-प्रासाद - भाग १ के लिए गमन करने का वृत्तांत कहा तथा- तुम निर्मल शील को धारण करना, मैं की हुई प्रतिज्ञा के निर्वाह के लिए जा रहा हूँ, जैसे कि सिर छेदा जाये अथवा बंधन हो, लक्ष्मी सर्वथा ही छोड़ दे, पुरुषों को स्वीकार कीये हुए कार्य के पालन में जो होना हो वह हो। इस प्रकार से कहकर क्रम से प्रयाण करते हुए समुद्र के तट पर आकर वह सोचने लगा कि- मैं स्वीकार कीये हुए को कैसे निर्वाह करूँगा ? इस प्रकार से विचारकर पूर्व में वर देनेवाले देव का स्मरण कर उसने छलांग दी । देव उसे लंका के उपवन में ले गया । वहाँ समृद्धि से एक सुंदर महल को देखकर-यह क्या हैं ? इस प्रकार से विचार करते हुए उसमें प्रवेश किया । वहाँ कमरे के भीतर यौवनशालिनी और निश्चेतन बाला को देखकर सोचा कि- अहो ! यह आश्चर्य क्या हैं ? इस प्रकार से वह विस्मयवंत हुआ । वहाँ पर एक अमृत से पूर्ण तुंब को देखकर हरिबल ने पानी की बुद्धि से शीघ्र ही उसके सर्वांग को सिंचित किया, उससे वह सोकर उठी हुई के समान ही तत्क्षण उठ खड़ी हुई । आगे हरिबल को देखकर, लज्जित होकर उसने कहा कि- हे स्वामी ! आप यहाँ पर किसलिए आएँ हो ? उसने भी आगमन का सर्व वृत्तांत कहा । हरिबल ने पुनः उसका स्वरूप पूछा, तब वह कहने लगी कि मेरा पिता लंकापति का देव-अर्चक हैं । एक दिन उसने नैमित्तिक से पूछा कि-मेरी पुत्री का वर कैसा होगा ? उसने कहा किइसका पति राजा होगा । यह सुनकर मेष के समान यह मूर्ख राज्य के लोभ से मुझसे विवाह करने की इच्छा करने लगा । उन्मार्ग के एक मार्ग में गमन करने में तत्पर लोभान्ध को धिक्कार हो, क्योंकि रात्रि- अंध, दिन में अंध, जात्यांध, माया- अंध, मानअंध, क्रोधांध, कामांध और लोभांध- यें आठों भी अंध कहें गये हैं।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy