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उपदेश-प्रासाद
भाग १
३२१
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रूप आदि को देखकर चिन्तार्त हुई उसने इस प्रकार से सोचा कि - मुझे धिक्कार हो । हाथी के समान मेरे दोनों भी इष्ट नष्ट हो गये हैं । जैसे किग्रीष्म ऋतु में दाह से आर्त्त हुआ और अत्यधिक तृष्णा से तरलित हुआ श्रेष्ठ हाथी सरोवर को पूर्ण देखकर शीघ्र ही वहाँ पर आया । वह तट-निकटवर्ती कीचड़ में भी वैसे मग्न हुआ जिससे कि नहीं नीर और नहीं तट प्राप्त हुआ, विधि के वश से उसके दोनों भी विनष्ट हुए ।
दुर्विधि, दुर्भग, दुष्कुल, दुष्ट, अनिष्ट, आदि पति के संयोग से नित्य जीते हुए मरण से एक बार मरण श्रेयस्कारी हैं ।
इत्यादि अत्यंत ही पीड़ित होती हुई उसे देखकर हरिबल ने सोचा कि - अहो ! मुझे धिक्कार हैं, क्योंकि मुझ मच्छीमार ने इसे ठगा हैं । इस प्रकार की चिन्ता को दूर करने के लिए पूर्व में तुष्ट हुए देव ने उसका रूप कामदेव के समान किया । तब आकाश-वाणी प्रकट हुई कि- पुण्य से युक्त ऐसे पति को प्राप्त कर तुम अन्य क्या इच्छा कर रही हो ? परस्पर प्रीति से युक्त उन दोनों ने पश्चात् गान्धर्व विवाह से विवाह किया । विशालपुर में आकर और प्रौढ़ गृह को ग्रहण कर वें दोनों रहनें लगें । उपहार आदि के दान से हरिबल राजा का बहुमान पात्र हुआ ।
एक बार मंत्री ने राजा के आगे वसन्तश्री के लावण्य, रूप आदि का वर्णन किया, हरिबल की पत्नी में लुब्ध हुआ और उसे मारने की इच्छावाले राजा ने सभा में कहा कि- मेरी सभा में हरिबल के बिना कोई अन्य साहसिक नहीं हैं, जो लंका के स्वामी बिभीषण को मेरे गृह में निमंत्रण कर सकें। अपने उत्कर्ष को सुनकर उसने भी राजा से कहा कि - हे स्वामी ! इस कार्य को कर मैं अल्प ही दिनों में आऊँगा । हरिबल ने स्व-गृह में स्त्री के प्रति लंका के स्वामी के निमंत्रण
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