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उपदेश-प्रासाद - भाग १ आवश्यक क्रिया करने और श्रेष्ठी के दर्शन के लिए आया । स्त्री ने श्रेष्ठी के रुधिर से उसके दोनों सींगों को लींपें । पश्चात् उसने बुंबारव कर और हृदय में ताड़ना देकर कहा कि - इसने मेरे पति को मारा हैं । उसे सुनकर बहुत जन उस बैल की निन्दा करने लगें, क्योंकि
जल के मध्य में मत्स्य के पैर, आकाश में पक्षियों की पादपंक्ति और नारीयों का हृदय-मार्ग, तीनों भी मार्ग अलक्ष्य हैं।
स्व-निन्दा को सुनकर उस बैल ने सिर की संज्ञा से-मैंने नहीं मारा हैं, इस प्रकार से उनको ज्ञापन किया । लोग उन दोनों को राजा के आगे ले गये । तब मंत्री ने कहा कि- दोनों के मध्य में जो तपे हुए लोह के गोले को जीभ से छूअगा, वह सत्य प्रतिज्ञाधारी हैं। तब बैल ने संज्ञा से हाँ इस प्रकार से कहकर शीघ्र से राजा के द्वारा कराये हुए तप्त लोह के गोले को चाटने लगा । वह स्त्री श्याम मुखवाली हुई। राजा ने उसे नगर से दूर किया।
श्रेष्ठी ने (बैल ने ) दुःख से संकुलित होने पर भी तीनों प्रकार से स्व-अहिंसा धर्म को लेश-मात्र से भी नहीं छोड़ा था ।
जिस जिनदास ने शास्त्र-वचन से बैल को विवेकवंत किया था, अपराध सहित पत्नी को देखकर मन से भी लेश-मात्र हिंसा का विचार नहीं किया था । [ इससे वह सुखी हुआ]
इस प्रकार से संवत्सर-दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश-प्रासाद ग्रन्थ की वृत्ति में चौसठवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ।