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उपदेश-प्रासाद - भाग १
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पैंसठवा व्याख्यान अब कुल-क्रम से आयी हुई हिंसा को भी छोड़ देते हैं, उसकी स्तुति करते हैं -
जो पंडित वंश के क्रम से आयी हुई हिंसा को भी छोड़ देता हैं, वह हरिबल के समान राज्य आदि संपदाओं का स्थान होता हैं।
इस विषय में श्लोक में कहा हुआ यह उदाहरण हैं
काञ्चनपुर में जितारि राजा था और उसकी लावण्य आदि रूप से युक्त वसन्तश्री नामक पुत्री थीं। इस ओर हरिबल नामक एक मच्छीमार पत्नी के साथ कलह से उद्विग्न हुआ मत्स्य-जाल को लेकर नदी के तट पर आया । वहाँ एक मुनि को देखकर गुरु के द्वारा कही हुई देशना को सुनी -
मेरुपर्वत से कौन बड़ा हैं ? कौन समुद्र से गंभीर हैं ? आकाश से क्या विशाल हैं ? और अहिंसा के समान कौन-सा धर्म हैं ?
भूसी के समान उन करोड़ पदों को पढने से क्या लाभ हैं, जो इतना भी नहीं जाना गया कि पर-पीड़ा नहीं करनी चाहिए ।
महाभारत में भी
हे युधिष्ठिर ! जो स्वर्ण मेरु को अथवा संपूर्ण पृथ्वी का दान देता है और कोई एक को अभयदान देता हैं, स्वर्णादि के दान के समान वह नहीं हो सकता ।
इत्यादि सुनकर और धर्म को जानकर उसने कहा कि- हे भगवन् ! मच्छीमार कुल के मुझरंक के गृह में चक्रवर्ती के भोजन के समान हिंसा की निवृत्ति दुःत्याज्य हैं । ऋषि ने कहा कि- यदि तुम अधिक करने में असमर्थ हो तो, प्रथम जाल में पड़े हुए मत्स्य को छोड़ दो, तुम इस अल्प नियम को ग्रहण करो। उस नियम को स्वीकार कर उसने नदी के जल में जाकर जाल को फेंका । उस जाल में एक स्थूल