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उपदेश-प्रासाद - भाग १ के श्रवण से देशविरति को प्राप्त किया । अष्टमी आदि में प्रासुक घास आदि और स्व-गुरु श्रेष्ठी के दर्शन के बिना वह भोजन नहीं करता
था ।
एक दिन पर्व के दिन में शून्य-गृह में अष्टमी की रात्रि में पौषध को ग्रहण कर श्रेष्ठी कायोत्सर्ग में स्थित हुआ । इस ओर अयोग्य आचरण करनेवाले श्रेष्ठी की कुलटा पत्नी ने एक पुरुष के साथ उस शून्य-गृह में संकेत किया था । रात्रि के समय एक पलंग, चार लोह के कील और जार को ग्रहण कर शून्य-गृह में आकर श्रेष्ठी को नहीं जानती उसने वहाँ शून्य-गृह में पलंग रखा । विधि के वश से श्रेष्ठी के पैर के ऊपर पलंग का पैर आया । उसे स्थिर करने के लिए हथौड़े के घात से पैरों में भूमि पर्यंत कीलें रखीं । एक कील से श्रेष्ठी का पैर वींधा । महा-व्यथा में उस युगल मेलापक के भार से आक्रान्त हुआ वह सोचने लगा कि
हे शरीर ! खेद का चिन्तन कीये बिना तुम सहन करो, पुनः तुझे स्व-वशता दुर्लभ हैं । हे जीव ! पर-वश हुआ तुम अत्यंत ही सहन करोगें और वहाँ पर तुझे गुण नहीं हैं।
हे बालक ! तुम मृत्यु से क्यों डर रहे हो ? वह भय-भीत हुए को नहीं छोड़ता हैं । जन्म प्राप्त नहीं हुए को वह ग्रहण नहीं करता हैं, तुम अजन्म में प्रयत्न कर।
सज्जन दोष समूह को दूर कर मन में गुण को ही धारण करते हैं । मेघ क्षारभाव को छोड़कर समुद्र से पानी को ही ग्रहण करतें हैं।
इस प्रकार से श्रेष्ठी ने स्व-दोषों को ग्रहण कीये, परंतु उसके ऊपर क्रोधित नहीं हुआ । शुभ ध्यान से मरकर श्रेष्ठी ने सौधर्म स्वर्ग को प्राप्त किया । पश्चात् प्रातःकाल में स्व-स्वामी के मरण को जानकर- अहो ! यह अकार्य हुआ हैं, अब मैं क्या करूँ ? इस ओर बैल