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उपदेश-प्रासाद - भाग १ ही दूसरों से प्रेरित होने पर तीर्छ आदि नियत दिशाओं में गमन से पवन जीव सहित हैं। गधे के समान सर्वत्वचा के अपहरण में मरण से वृक्ष जीव सहित है । इस प्रकार से आगम और उपपत्ति से उनके जीवत्व को सिद्ध जानकर और तथा-प्रकार के धर्म को जानता हुआ स्थावरों में भी निरर्थक हिंसा को न करें, यही इसका तात्पर्यार्थ हैं। मैं अब इस व्रत की स्तुति करता हूँ
सर्वज्ञों ने सर्व व्रतों में इसे मुख्य कहा हैं, मनुष्य सर्व पापों को दूर करनेवाले इस व्रत का प्रयत्न से पालन करें।
इस विषय में पूर्वकृत मुनिपति चरित्र के अनुसार से जिनदास श्रावक का यह प्रबन्ध लिखा जाता है
चंपा में गुरु के मुख से धर्म देशना को सुनकर जिनदास श्रावक ने दर्शन मूलवालें व्रतों को ग्रहण किया । एक बार उसने एक बैल को निलांछन आदि दुःख की पीड़ा से दया करके छुड़ाया था, क्योंकि
दया के बिना देव-गुरु के चरणों की पूजा, सर्व इंद्रियों का यंत्रण, दान और शास्त्रों का अध्ययन, यें सर्व ही स्वामी रहित सैन्य के समान वृथा ही हैं।
खरगोश की दया से हाथी मेघकुमार, क्रौंचपक्षी की दया से मेतार्य ने मोक्ष को, कबूतर की दया से शांतिनाथ हुए थे और मुनिसुव्रत स्वामी ने घोड़े की दया से साईठ योजन का विहार किया था ।
चाणक्य ने भी कहा है -
दया-हीन धर्म को छोड़ दें, क्रिया-हीन गुरु को छोड़ दें, क्रोध-मुखवाली पत्नी को छोड़ दें और स्नेह रहित बांधवों को छोड़
दें।
उस बैल ने भी श्रेष्ठी के मुख से नित्य प्रतिक्रमण, शास्त्रादि