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________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ ३१५ उससे असंख्यात गुण एक बादर निगोद शरीर होता हैं । यहाँ पर यह बादर पृथ्वीकाय शरीर की सूक्ष्मता हैं, जैसे कि कोई युवान् प्रयत्न से आहिरण के ऊपर स्थापित वज्र-रत्न के ऊपर हथौड़े से मारता हैं, परंतु वह भग्न नहीं होता और विपरीत ही लोहकार के आहिरण में प्रवेश करता है तथा उस वज्र-रत्न को चक्रवर्ती की स्त्री स्व-हस्त से चूर्ण कर स्वस्तिक को पूरती है । वह स्त्री निसारक में इक्कीस बार तक उसका मर्दन करती हैं, तब किन्हीं जीवों को पीड़ा होती है और किन्हीं को मूल से भी नहीं होती है, किन्हीं का मरण और कोई जीव अल्प मात्र भी दुःख को प्राप्त नहीं करतें हैं । जैसे कि - किसी महा-नगर में किसी के गृह में चोर ने द्रव्य को लूटा, कोई उस वार्त्ता को जानता हैं और कोई मूल से भी नहीं जानता हैं, उसके समान ही लवण आदि सचित पृथ्वीकायों में जानें । समयानुसार से स्थावरों में जीवत्व कहा जाता हैं - पत्रित होतें हैं, पुष्पित होतें हैं, फल को देते हैं, काल और इंद्रिय के अर्थों को जानते है, उनका जन्म, वृद्धि और जरा होती है तो वें क्यों जीव नहीं हैं ? जो पत्रित होते हैं- पत्रों को छोड़ते हैं, पुष्पों से युक्त होतें हैं, फल देतें है । काल को - स्व पत्र, पुष्प, फल के निमित्त काल को जानतें हैं । तथा इंद्रियार्थों को - गीत आदि को जो जानते हैं तथा बकुल आदि वृक्षों को दर्शन से इत्यादि । तथा उनका जन्म, वृद्धि और जरा होती है, तो वें किस लिए जीव नहीं है ? जीव ही है, यह तात्पर्य है । यह प्रयोग हैं- मनुष्य के समान ही जन्म, जरा और वृद्धि से युक्त होने से वनस्पतियाँ जीव हैं। मेंढक के समान ही भूमि से स्वभाविक रीति से उत्पन्न होने से जल जीव सहित हैं। बालक समान ही आहार के द्वारा वृद्धि दिखायी देने से अग्नि जीव सहित हैं । गाय के समान
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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