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________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ ३१४ आदि प्रयोजन के बिना स्थावरों की हिंसा भी करते हुए व्रत को मलिन करते है, इसलिए अप्रतिषिद्धों में भी यतना करते हैं। श्रावक को त्रस आदि से रहित, संखारक को देखने आदि की विधि से तथा परिमित और अच्छी प्रकार से शोधित कीये हुए ईंधनों का ही प्रयोग करना चाहिए, अन्यथा दया से विपरीतता की आपत्ति से व्रत मलिन होता है, उसे कहते हैं कि - परिशुद्ध जल और लकड़ी, धान्य आदि का ग्रहण करना चाहिए तथा ग्रहण कीये हुए उनके रक्षण के लिए विधि से परिभोग करना चाहिए । आगम में पृथ्वी आदि का जीवमयत्व इस प्रकार से कहा गया है हरे आँवले के प्रमाण में जो पृथ्वीकाय के जीव होतें हैं, वें यदि सरसव मात्र हो जाय तो जंबूद्वीप में समा नहीं सकतें हैं । जिनवरों ने एक पानी के बिंदु में जो जीव कहें हैं, वें यदि सरसव मात्र हो जाय तो जंबूद्वीप में समा नहीं सकतें हैं । दो प्रकारों से भी पृथ्वी आदि पाँच सूक्ष्म जीवों की अवगाहना अंगुल के असंख्येय भाग से जानें । अनंत जीवों से आश्रित एक शरीर - वह निगोद का एक सूक्ष्म शरीर होता है । उससे असंख्येय शरीरों को एकत्रित करने पर एक सूक्ष्म वायु का शरीर होता है । उससे असंख्येय गुण एक सूक्ष्म तेजस् शरीर हैं। उससे असंख्यात सूक्ष्म तेजस् देहों के मिलने पर एक सूक्ष्म जल शरीर होता है । उससे असंख्यात गुण एक सूक्ष्म पृथ्वी शरीर होता है । उससे असंख्येय गुण अधिक एक बादर वायु शरीर को जानें। उससे असंख्यात गुण बादर अग्नि देह का परिमाण हैं । उससे असंख्यात गुण एक बादर जल शरीर है । उससे असंख्यात गुण एक बादर पृथ्वीकाय शरीर है । 1
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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