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उपदेश-प्रासाद भाग १
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चौंसठवाँ व्याख्यान
अब हिंसा के अभाव से विरति होती है, इसे कहतें हैंहित के इच्छुकों को द्रव्य-भाव से चार प्रकार की हिंसा का त्याग करना चाहिए, तब उनको प्राणियों को सौख्य देनेवाली देशविरति होती है ।
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द्रव्य-भाव से हिंसा चार प्रकार से हैं । वहाँ ईर्यासमिति से युक्त साधु को सत्त्व के वध में द्रव्य से हैं न कि भाव से । कीट की बुद्धि से अंगारों के मर्दन में अंगारमर्दक को अथवा मन्द प्रकाश में सर्प की बुद्धि से रस्सी को मारते हुए को भाव से होती है न कि द्रव्य से । मन, वचन और काया से शुद्ध साधु को न ही द्रव्य से और न ही भाव से तथा मैं इसे मारता हूँ इस प्रकार से हिरण के वध में परिणत हुए शिकारी को द्रव्य से और भाव से हिंसा होती है ।
हिंसन-हिंसा करना वह हिंसा है । वाचक - वर ने जैसे कि तत्त्वार्थ भाष्य में कहा है कि- प्रमाद से प्राणों का विच्छेद करना वह हिंसा है । अथवा जैसे कहा गया है कि
पाँच इन्द्रिय, तीन प्रकार के बल [ मनबल, वचनबल, काय बल], उच्छ्वास-निःश्वास और आयु, भगवंतों ने इन दस को प्राण कहें है, उनका वियोगी करण हिंसा है ।
उसके त्याग से द्वितीय कषाय के बिना हितेच्छुओं को पञ्चम गुणस्थानक संबंधी देश-विरति होती है ।
जो कि गृहस्थों को स-जीव की हिंसा निषेध की गयी हैं, तो वें यथा-इच्छा से स्थावरों में उसे करते हैं ? तो उत्तर देते हैं किकरुणाधारी और मोक्ष की कांक्षावालें उपासक निरर्थक ही स्थावर जीवों की भी हिंसा न करें ।
स की हिंसा से निवृत्ति ही धर्म नहीं हैं, किंतु शरीर, कुटुंब