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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ ३१२ कितने ही दिनों के बाद राजा के मुख को देखकर मंत्रियों ने चित्र-पट दिखाया । उन्होंने यथावत् स्वरूप को कहा कि- यह हमारी राज-गुरु की मूर्ति हैं । पुण्य-पाप फल इत्यादि दिखाकर गुरु ने हमारे इस राजा से जीव-दया धर्म ग्रहण कराया हैं । राजा ने भी सर्वत्र अमारि पटह बजवाया । प्रति संवत्सर दो हजार और चार सो भैंसों की बलि को ग्रहण करनेवाली स्व कुलदेवी श्रीगुरु की सहायता से अठारह देशों के आरक्षकपने को ग्रहण करायी गयी हैं । हमारे राजा की वैरिणी वह हिंसा अब कहीं भी स्थान को प्राप्त नहीं करती हुई श्रीकाशी देश में व्याप्त हो रही हैं, उसके निवारण के लिए हाथ में भेंट से युक्त हम यहाँ पर भेजे गएँ हैं। उससे संतुष्ट हुए काशी के राजा ने कहा कि यह योग्य हैं। श्रीगुर्जर राजा विवेक से बृहस्पति हैं, जिससे कि ऐसा कृपामय राजा चारों ओर भी दीप्तिमंत होता हैं । वह स्वयं ही कृपा को करवा रहा है उससे प्रेरित हुआ भी यदि मैं इसे न कराऊँ तो मेरी मति कैसी है ? इस प्रकार से कहकर और स्व-देश आदि से एक लाख और अस्सी हजार मित जालों को तथा हजारों की संख्या में अन्य हिंसा के उपकरणों को मंगाकर चौलुक्य मंत्रियों के प्रत्यक्ष में ही जलाएँ और स्व देशों में अमारि पटह दिलाया। उससे द्विगुण भेंट देकर प्रधानों को विसर्जित किया और पाटण में आकर उन्होंने राजा से सर्ववृत्तान्त का निवेदन किया । स्वयं ने भी अठारह लाख घोड़ों पर पूंजणी से युक्त पर्याण आदि कराएँ । इत्यादि अवदात उसके चरित्र से जानें । __ इस प्रकार से संवत्सर-दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश-प्रासाद ग्रन्थ की वृत्ति में त्रैसठवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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