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________________ ३११ उपदेश-प्रासाद - भाग १ जो निज वर्ण और धर्म से चलित नहीं होता है, जो अपने मित्र और विपक्ष पक्ष के ऊपर सम मतिवाला हैं, जो किसी का कुछ हरण नहीं करता हैं और न ही किसी को मारता हैं, अत्यंत स्थिर मनवालें उसे तुम विष्णु का भक्त जानो । विमल मतिवाला, मात्सर्य रहित, प्रशान्त, पवित्र चरित्रवाला, अखिल प्राणियों का मित्र हुआ, प्रिय और हित वचनवाला तथा मान-माया से रहित ऐसे उस पुरुष के हृदय में सदा वासुदेव निवास करता हैं। इस प्रकार से तत्त्व-वृत्ति से जैन ही सर्वजीवों के रक्षक हैं न कि ब्राह्मण, जो उनसे विपरीत है । परमार्थ से नित्य और चिद् रूपवाला तथा ज्ञान-आत्मा से व्याप्त होता है, इस प्रकार से विष्णु है, इस प्रकार की व्युत्पत्ति से जिन ही विष्णु है और उनके भक्तों की मुक्ति ही है, यह निश्चय से हैं । इत्यादि अनेक प्रकार के उपदेशों से धर्म को जानकर राजा ने अहिंसा आदि व्रत का ग्रहण किया। तथा चारों वर्गों में-जो कोई भी स्व अथवा अन्य के लिए जीवों को मारेगा, वह राजद्रोही है, इस प्रकार से पाटण में पटह बजवाया । मच्छीमार, कसाई आदि को भी निष्पापवृत्ति से निर्वाह कराते हुए दयामयत्व किया। तत्पश्चात् काशी देश में बहुत मत्स्यों की हिंसा को सुनकर उसके निवारण के लिए हिंसा-अहिंसा के फल और स्वर्ग-नरक आदि चित्रों से चित्रित एक पट किया और उसके मध्य में श्रीगुरु-मूर्ति और उसके पास स्व-मूर्ति, इस प्रकार के चित्र-पट को तथा दो करोड़ स्वर्ण और दो हजार जात्य घोड़े आदि भेंट को स्व-मंत्रियों के हाथों से वाणारसी के स्वामी जयचन्द्र राजा लेकर जो सात सो योजन भूमि का स्वामी, चार हजार हाथी, साईठ लाख घोड़े और तीस लाख पैदल सेना से व्याप्त था तथा गंगा- यमुना तीर के बिना अन्यत्र जाने में समर्थ नहीं होने से पंगुराजा इस प्रकार से बिरुद को वहन करनेवालें उसके पास भेजा ।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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