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________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ ३१० ने कहा कि - हे राजन् ! सुनो, स्कन्द-पुराण के अन्तर्गत रुद्र द्वारा प्रणीत कपाल मोचन स्तोत्र में हे सूर्य ! तेरे द्वारा यह समस्त ही व्याप्त किया गया हैं, तुम तीनों जगत् को ध्यान करने योग्य हो । हे देव! तेरे अस्त हो जाने से पानी रुधिर कहा जाता हैं । तेरी किरणों से ही संस्पर्शित हुआ पानी पवित्रता को प्राप्त होता हैं । इस प्रकार के प्रामाण्य से रात्रि में भोजन और पानी को छोड़ते हुए हम ही तत्त्व से मान रहें हैं। किसी ने ऐसा भी कहा है मेघ समूहों से सूर्य - मंडल के ढंक जाने से भोजन नहीं करतें है और अहो ! सूर्य के अस्त हो जाने पर भोजन करनेवालें क्या सूर्य के सुसेवक हैं ? | पुनः राजा ने पूछा कि - अन्य कहतें हैं कि- विष्णु के बिना जैनों को मुक्ति नहीं हैं, वह कैसे ? सूरि ने कहा कि - हे राजन् ! सत्य हैं, परंतु जैन - ऋषि ही वैष्णव हैं, क्योंकि गीता में अर्जुन के आगे विष्णु का वाक्य है कि हे अर्जुन! पृथिवी में भी में हूँ, वायु- अग्नि और जल में भी .मैं हूँ | मैं वनस्पति में हूँ और सर्व प्राणियों में भी मैं रहा हुआ हूँ । सर्व में रहे हुए मुझे जानकर जो कभी-भी हिंसा न करें और मेरा लोप न करे, मैं उससे विनष्ट नहीं होता हूँ । तथा विष्णु पुराण में पराशर ने कहा है कि हे राजन् ! जो पुरुष पर - स्त्री, पर द्रव्यों में और जीव-हिंसाओं में मति को नहीं करता हैं, वह विष्णु को संतुष्ट करता है । हे नृप (राजन् ) ! जिसका मन रागादि दोष से दुष्ट नहीं हुआ हैं, उसने सर्वदा विशुद्ध चित्त से विष्णु की स्तुति की है । वहीं पर यम किंकर के संवाद में
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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