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उपदेश-प्रासाद - भाग १ गति में जाता है।
इस प्रकार से लिंग पुराण में है
मकड़ी के तंतु से गाले हुए बिन्दु में जो सूक्ष्म जन्तु हैं, वें यदि भ्रमर के समान बनें तो तीनों लोक में समा नहीं सकते । केसर और कुंकुम के पानी के समान सूक्ष्म जन्तुओं से संपूर्ण पानी को दृढ़ वस्त्र से भी शुद्ध नहीं किया जा सकता हैं।
इस प्रकार से उत्तर मीमांसा में हैं
सर्व दया मूल धर्म ही प्रमाणता को प्राप्त करता हैं, उससे तुम भ्रान्ति का परिहार कर दया-धर्म में स्थिर हो।
___ इत्यादि वचन से जैन-धर्म को सत्यता से मानते हुए पुनः कहने लगा कि- हे भगवन् ! अन्य कहतें है कि- जैन तो वेद से बाह्य हैं, नमस्करणीय नहीं है, वह कैसे ? सूरि ने कहा कि-हेराजन् ! वेद कर्म-मार्ग में प्रवर्तक हैं और हम नैष्कर्म्य-मार्गी हैं, इसलिए वेदप्रामाण्य कैसे हो ? उत्तर-मीमांसा में वेद अवेद हैं, लोग अलोग हैं, यज्ञ अयज्ञ है इत्यादि वर्णन है।
हे पितामह ! वेद में अविद्या और कर्म-मार्ग पढ़े जातें हैं, उससे आप मुझे कर्म के मार्ग का क्यों उपदेश दे रहे हो?
रुचिप्रजापति स्तोत्र में यह पुत्र-वाक्य हैं । यदि वेदों में जीवदया है तो सर्व शास्त्रों से शुद्ध दया को करते हुए कैसे वेद-बाह्य हैं ?
हे भारत ! सभी वेद, सभी यज्ञ और सभी तीर्थों का अभिषेक वह नहीं कर सकता है, जो प्राणियों की दया करता है।
इसलिए वेदों में दया नहीं है, तो नास्तिकों के शास्त्र के समान ही प्रमाण नहीं हैं। इत्यादि गुरु के वाक्यों से राजा वेद में कहे हुए को अप्रमाण मानने लगा । पुनः एक दिन सूरि से कहा कि- हे भट्टारक ! अन्य कहतें है कि जैन प्रत्यक्ष देव सूर्य को नहीं मानतें है । तब सूरि