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________________ ३०३ उपदेश-प्रासाद - भाग १ है ? श्रेष्ठी ने कहा कि- मेरे मस्तक में मार्ग कर यह अन्याय से रक्त को पी रही हैं, इसलिए इसे मार डाला । राजा ने कहा कि- रे दुष्ट ! जीवों का स्थान भ्रष्ट करने से तुम ही अन्यायी हो । यदि तुम जन्तुकी हत्या से नहीं डरते हो तो मेरी आज्ञा के लोप से भी नहीं, इस प्रकार से राजा ने उसका अपमान किया । वह श्रेष्ठी स्व जीव-भिक्षा की याचना करने लगा । राजा ने कहा कि- तुम गृह के सर्वस्व का व्यय कर लूं पाप के प्रायश्चित्त में यूका-विहार कराओ (युका-नँ), जिससे कि उसे देखकर कोई भी जीव-वध का आचरण न करें । श्रेष्ठी ने वैसे ही स्वीकार किया। राजा का अमारिकरण इसके आगे क्या वर्णन किया जाये, जो द्युत में भी कोई मारि, इस प्रकार से दो अक्षरों को नहीं कहता था । राजा ने सप्त व्यसनों को हिंसा के कारण जानकर पटह उद्घोषणा पूर्वक सातों भी व्यसनों को मिट्टीमय, मसी से लिप्त मुखवालें और मनुष्य रूप में कर तथा नामांकित कर गधे के ऊपर रखकर ढोल आदि के बजाने पूर्वक ही चौरासी चौराहों में भ्रमण और लकड़ी, मुट्ठि आदि से मारने पूर्वक ही पाटण से और निज अन्य देशों से निकाल दीये, इत्यादि बहुत से वर्णन जिनमंडन कृत इसके चरित्र से जाने। __यहाँ पर प्रमा से अधिक व्याप्त होनेवाली श्रीकुमारपाल राजा की महिमा कैसे कहीं जाय ? कृपाव्रतको आश्रय कीये हुए जिसने यहाँ पर स्वयं ही निखिल जगत् को तन्मय किया था। इस प्रकार से संवत्सर के दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश-प्रासाद ग्रन्थ की वृत्ति में पञ्चम स्तंभ में बासठवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ ।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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