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उपदेश-प्रासाद - भाग १
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तिरसठवा व्याख्यान अब गृहस्थों को मुनियों से बीस के सोलहवें-भाग से सवा भाग में (सवा-वीसा) जीव-दया होती हैं, उसे कहते हैं
पूज्यों ने गृहस्थों के आद्य व्रत में बीस के उप-भाग से सवा प्रमाण की दया का निदर्शन किया है और उससे अधिक का प्रकाशन नहीं किया।
__ केवल बीस के उप-भाग से सवा भाग की दया इस प्रकार से होती है, जैसे कि प्राचीन सूरीन्द्रों ने कहा है कि
जीव-स्थूल और सूक्ष्म दो प्रकार से हैं । उनकी हिंसासंकल्प और आरंभ दो प्रकार से होती हैं । संकल्प से हिंसा-सापराध
और निरपराध दो प्रकार से हैं । निरपराध की हिंसा भी दो प्रकार से हैं - सापेक्ष और निरपेक्ष ।
स्थूल और सूक्ष्म जीवों से प्राणि-वध दो प्रकार से हैं । वहाँ पर स्थूल जीव-त्रस हैं और सूक्ष्म-यहाँ पर एकेन्द्रिय आदि-पृथिवी आदि पाँचों भी हैं, न कि सूक्ष्म नाम-कर्म के उदयवर्ती और सर्व लोक में व्याप्त होकर रहे हुए, उनके वध के अभाव से और स्वयं ही आयु के क्षय से मरण होने के कारण से । उनकी अविरति से बन्ध है, न कि हिंसा-जन्य बंध हैं । यहाँ साधुओं को दोनों प्रकार के भी वध से निवृत्त होने से बीस-बीसा की दया हैं । पृथ्वी, जल आदि में सतत आरंभवाले गृहस्थों को स्थूल जीवों के वध से निवृत्ति है न कि सूक्ष्म जीवों से । इस प्रकार से बीस भाग रूप धर्म में से अर्ध-भाग दस चला गया।
स्थूल प्राणि वध भी दो प्रकार से हैं- संकल्प से और आरंभ से । वहाँ संकल्प से - मैं इसे मारता हूँ, इस प्रकार से मन-संकल्प रूप प्रथम भेद होता हैं, गृही उससे निवृत्त होता है, न कि आरंभ से