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उपदेश-प्रासाद - भाग १ गाले हुए जल का पान कराया।
एक बार राजा के कायोत्सर्ग में स्थित होने पर मकोड़ा पैर पर लगा । पास में स्थित मनुष्यों से दूर कीये जाने पर भी वह दूर नहीं हुआ । राजा ने उसकी असमाधि को जानकर चिमटे से स्व त्वचा के साथ उसे दूर किया । तथा वर्षा के चारों मासों में स्व नगर के द्वारों से आगे नहीं जाऊँगा, इस प्रकार से नियम ग्रहण किया । जैसे कि
वेदों में पारंगत को अखिल त्रैलोक्य देकर जो पुण्य होता है, वस्त्र से छाने हुए पानी से उससे करोड़ गुणा पुण्य होता है । हे राजन् ! सात गाँवों को जलाने पर जो पाप होता हैं, नहीं छाने हुए पानी के एक घड़े में वह पाप होता है । यहाँ पर मच्छीमार को संवत्सर से जो पाप होता हैं, नहीं छाने हुए जल का संग्रह करनेवाला उस पाप को एक दिन में प्राप्त करता हैं । वस्त्र से छाने हुए पानी से जो सर्व कार्यों को करता है, वह मुनि, वह महा-साधु, वह योगी और वह महाव्रती हैं। क्षार पानी में उत्पन्न होनेवालें पूतर जीव मीठे पानी से मर जाते हैं और मीठे पानी में उत्पन्न होनेवाले पूतर जीव खारे पानी से, उस कारण से पानी का संमिश्रण न करें।
इस प्रकार से राजा ने पुराण में कहे हुए श्लोक-पत्री हाथ में लीये अपने आप्त जनों को सर्वत्र स्थान-स्थान पर, देश-देश में, नगर-नगर में और गाँव-गाँव में जीव-दया के निमित्त से भेजा । राजा ने- क्या कोई कहीं पर जन्तुओं की हिंसा कर रहा है अथवा नहीं? यह जानने के लिए चारों ओर गुप्तचर भेजें । शीघ्रता से सर्वत्र भ्रमण करते हुए उन्होंने किसी गाँव में चोटले से पत्नी के द्वारा निकाली हुई
और हाथ में रखी हुई एक को मारते हुए महेश्वर व्यापारी को देखा। वेंचर पुरुष जूं सहित उस श्रेष्ठी को पाटण में राजा के आगे ले गये। राजा ने कहा कि- रे दुष्ट चेष्टावालें! तुमने इस दुष्कर्म को क्यों किया