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उपदेश-प्रासाद - भाग १
३०१ भी वह नागरिक ही है । सर्वथा नगर धर्म के त्याग में तत्त्व ही नहीं मिलता है और वह अन्य ही हैं । तथा त्रसत्व के त्याग से जब स्थावरत्व को प्राप्त हुआ, तब यह अन्य ही है और कारण से उसे मारते हुए को व्रत-भंग नहीं होता । इसलिए तुम्हारा पक्ष अयोग्य हैं, इस प्रकार से यह प्रसंग से कहा गया है, विशेष से सुअगडांग दीपिका से जानें।
अब कुमारपाल ने इस व्रत को मुख्य भांगे से स्वीकार किया था, यह उसका अधिकार हैं
श्रीहेमचन्द्राचार्य ने पाटण में सभा में कहा कि
जगत्-तल पर कहीं पर भी जीव-दया तुल्य धर्म नहीं हैं, उस कारण से सर्व प्रयत्न से मनुष्य जीव-दया करें।
ग्वाला बबूल की शूलि के अग्र में पीरोयें हुए गूंके अत्यंत पाप से एक सो और आठ बार शूलिका के ऊपर चढ़ने के द्वारा मरण को प्राप्त हुआ था।
तथा लौकिकों के द्वारा कल्पित की गयी जीव-दया इस प्रकार से हैं
जहाँ पर गाय प्यास रहित होती है, वहाँ वह सात कुलों को तारती है, सर्वथा सर्व प्रयत्न से तुम भूमि पर स्थित पानी करो।
यहाँ पर गाय के विषय में जो दया है, वह उनके मत से दया हैं और इसमें पृथिवी, पानी, पूतर आदि की हिंसा भी हैं, इस प्रकार की रूपवाली सम्यग् अहिंसा नहीं हैं । यह सुनकर स्वयं व्रतों का स्वीकार कर कुमारपाल ने अठारह देशों में अमारि पटह दिलाया । काशी, गीजणि आदि चौदह देशों में मैत्र्य आदि से और बल से अमारि का पालन कराया । अठारह लाख अश्वों को, ग्यारह हजार हाथियों को, अस्सी हजार गो-धन को और पचास हजार ऊँटों को