________________
३००
उपदेश-प्रासाद - भाग १ ज्येष्ठ पुत्र को छोड़ा । यहाँ पर यह दृष्टांत की योजना हैं
सम्यक्त्ववान् श्रावक सर्व प्राणातिपात विरति को करने में अशक्त राजा के स्थान में हैं । षट्काय के पिता तुल्य साधु के द्वारा प्रेरित करने पर भी सर्व-विरति का अंगीकार नहीं करता । साधु छह भी कार्यों को छुड़ाता हैं । छह के मोचन में अशक्त श्रावक एक ज्येष्ठ त्रस-काय को छोड़ता हैं- पालन करता है, यह तात्पर्य हैं। साधु एक के मोचन से भी अपने को कृतार्थ मानता हैं । जिस प्रकार से उस व्यापारी की शेष पाँच पुत्रों की वध-अनुज्ञा नहीं थी, ऐसे ही साधु को भी शेष के वध की अनुमति नहीं हैं । किंतु जिस ही व्रत को ग्रहण कर संकल्प वध से निवृत्त हुआ श्रावक जिन ही स्थूल सत्त्वों की रक्षा करता है, उसके निमित्त से कुशल अनुबंध ही होता है, इसका यह अर्थ हैं।
तथा द्वीन्द्रिय आदि त्रस कहें जातें हैं । जब त्रस-आयु क्षीण होती है, तब त्रसकाय की स्थिति क्षीण होती हैं और वह जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से दो हजार सागरोपम से अधिक मानवाली हैं । तब वें त्रस-आयु को छोड़ देते है और अन्य भी त्रस के सहचर कर्मों को छोड़कर स्थावरपने से उत्पन्न होतें हैं । जब स्थावर का आयुष्य भी क्षीण हो जाता हैं तथा स्थावर-काय की स्थिति भी क्षीण होती हैं, जो जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से अनंत-काल, असंख्येय पुद्गल-परावर्त है, तब काय-स्थिति के अभाव से और सामर्थ्य से त्रसपने से उत्पन्न होते हैं । वें त्रस, प्रत्येक आदि कर्मों से युक्त होते हैं । भव-स्थिति की अपेक्षा से उत्कृष्ट से उनका तैंतीस सागरोपम का आयुष्य हैं, इसलिए त्रस, स्थावरों से अन्य ही है । श्रावकों ने उनकी निवृत्ति ही की है, न कि स्थावरों की । नागरिक का दृष्टांत भी अयोग्य है । जो नागर के धर्मों से युक्त बाहर स्थित हुआ