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उपदेश-प्रासाद
भाग १
जो आद्य व्रत में भांगें कीये गये है उनको सप्त गुणा कर मध्य में वें छह स्थापित कीये जाय, बाद में आगे के व्रतों के होतें हैं । इस प्रकार से बारह व्रत तक जानें सभी को मिलाने पर यह भांगों की संख्या हैतेरह सो और चौरासी करोड़, बारह लाख, सत्तासी हजार और दो सो - यह षट् भांगाओं का सर्वाग्र हैं।
यहाँ पर बहुत कहने योग्य है, वह श्रावक व्रत भंग प्रकरण, धर्मरत्न ग्रन्थ आदि से जानें ।
यहाँ शिष्य का प्रश्न है कि- जो मुनि गृहस्थ को राजादि अभियोग के बिना स्थूल प्राणि- घात की निवृत्ति को करातें हैं, उनको स्थावर हिंसा की अनुमति का दोष होता है, तब मुनियों को सर्वविरतित्व की हानि का प्रसंग आता है । इस प्रकार से प्रत्याख्यान करते हुए श्रावक स्वप्रतिज्ञा में अतिचार लगातें हैं । किस कारण से ? स्थावर त्रसपने से उत्पन्न होतें हैं और त्रस स्थावरपने से, इस प्रकार से होने से प्रतिज्ञा का भंग होता हैं। जैसे कि नगर निवासी को नहीं
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मारुँगा, इस प्रकार की प्रतिज्ञा जिसने जिस काल में की है और तद् अनंतर यदि वह अरण्य में स्थित नागरिक को मारें, तो क्या उसे प्रतिज्ञा का लोप नहीं होता ? इस प्रकार से यहाँ पर भी वर्त्तमान में जिसने त्रस - वध की निवृत्ति की हैं, स्थावर - काय को प्राप्त यदि वह उसी त्रस को मारता हैं, तो उसे प्रतिज्ञा का लोप कैसे न हो ? इस प्रकार से प्रत्याख्यान करनेवालों को और करानेवालों को प्रतिज्ञा का लोप होता हैं ।
इसका यह प्रति-विधान हैं, गुरु जवाब देते हैं कि - यह तुम्हारा कौन - सा व्यामोह हैं ? यह पक्ष अत्यंत अज्ञान युक्त हैं, जैसे कि- श्रावकों ने साधु के आगे यह कहा कि- हम श्रमणत्व को ग्रहण करने के लिए समर्थ नहीं हैं । हम निरपराध त्रस-काय वध के