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उपदेश-प्रासाद - भाग १ अणुव्रत हैं
स्थूल जीव आदि की हिंसा का वारण यह प्रथम व्रत हैं, गृहस्थ उसे द्विविध-त्रिविध आदि भांगाओं से हर्ष पूर्वक ग्रहण करें।
स्थूल जीव-द्वीन्द्रिय आदि त्रस जीव हैं । आदि शब्द से निरर्थक ही स्थावरों में भी । उनकी हिंसा-घात, उसका वारणनिवारण । दो प्रकार से, तीन प्रकार के भांगाओं से गृहस्थ उस व्रत
को हर्ष से ग्रहण करें, यह तात्पर्य हैं। - यहाँ पर यह भावना हैं- द्विविध-कृत-कारित रूप हैं । त्रिविध-मन, वचन, काया रूप योग हैं। आदि शब्द से एक-एक विध आदि हैं । वहाँ पर इस प्रकार के भांगें हैं- यहाँ पर जो हिंसा आदि से विरति को स्वीकार करता हैं, वह अपनी आत्मा के द्वारा स्थूल हिंसा को नहीं करता हैं और अन्य के द्वारा नहीं कराता हैं । मन से, वचन से, काया से । इसकी अनुमति अप्रतिषिद्ध हैं क्योंकि पुत्रादि परिग्रह के सद्भाव होने से । भगवती आगम में गृहस्थों को त्रिविध त्रिविध से प्रत्याख्यान कहा गया हैं श्रुत में कहे जाने के कारण से वह निर्दोष ही है, तो वह किस कारण से कहा गया है ? उत्तर कहते हैं किउसके विशेष विषयपने से, जैसे कि- जो प्रव्रज्या को ही ग्रहण करने की इच्छावाला है अथवा विशेष से जो अन्त्य समुद्र में रहे हुए मत्स्य आदि के मांस को अथवा स्थूल हिंसा की किसी अवस्था विशेष में प्रत्याख्यान करता है, वह ही त्रिविध त्रिविध से कर सकता है, यह अति अल्प विषयवाला भांगा है । बहुलता से तो द्विविध त्रिविध से हैं। आदि ग्रहण से द्विविध द्विविध से यह द्वितीय भांगा हैं। द्विविध एक विध से यह तीसरा हैं । एक विध त्रिविध से, यह चतुर्थ हैं। एक विध द्विविध से, यह पंचम भांगा हैं । एक विध एक विध से यह छट्ठा भांगा हैं। आद्य व्रत में ये छह भांगें कहे गये हैं। अन्य व्रतों में भी छह जानें।