SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 311
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपदेश-प्रासाद भाग १ २६६ ही अप्रत्यक्ष परमाणु भी स्व-कार्य से अनुमान कीये जाते हैं, वैसे ही सर्वत्र जानें। - इत्यादि सिद्धांत-वाक्य की युक्ति से और सुबुद्धि प्रधान की उक्ति से प्रतिबोधित हुए राजा ने देशविरतित्व को ग्रहण किया । क्रम से दोनों भी प्रवज्या को प्राप्त कर मुक्ति में गयें। जो कि कहा गया है कि- पानी के दृष्टांत से सुबुद्धि के वचन से जितशत्रु राजा प्रतिबोधित हुआ था । अग्यारह अंगों को धारण करनेवाले वे दोनों भी श्रमणसिंह (श्रमणों में सिंह तुल्य ) सिद्ध हुए । दर्शन सकल बुद्धियों का निधान हैं, स-प्रबंध यहाँ पर उसका अत्यंत वर्णन किया गया है और वह समस्त मोक्ष के शुभ हेतुओं में मुख्य हैं । पाठक उसका अत्यंत उपयोग करें । इस प्रकार से संवत्सर के दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश-प्रासाद ग्रन्थ की वृत्ति में चतुर्थ स्तंभ में इकसठवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ । यह चतुर्थ स्तंभ समाप्त हुआ । पंचम स्तंभ बासठवाँ व्याख्यान प्रथम खंड में दर्शन का वर्णन किया गया हैं । जिसे वह सम्यग् श्रद्धा होती हैं प्रायः कर उसे व्रत भी होते हैं, इस संबंध में उपस्थित यह द्वितीय व्रत खंड लिखा जाता हैं, जैसे कि - अणुव्रत पाँच हैं, तीन गुणव्रत और चार शिक्षा व्रत, इस प्रकार भेद से ये बारह मानें गये हैं । वहाँ पाँच अणुव्रतों में यह आद्य
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy