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उपदेश-प्रासाद
भाग १
इकसठवाँ व्याख्यान
अब यह सम्यक्त्व कौन-सी वस्तु हैं ? उसका निश्चय किया जाता है कि
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मिथ्या आदि पुद्गलों के अभाव से आत्मा के जो प्रदेश हैं, वें समस्त ही स्वच्छता को प्राप्त कीये गये, वही वास्तव में सम्यक्त्व हैं। केवल मिथ्या आदि अर्थात् मिथ्यात्व और उप-लक्षण से अनंतानुबंधि कषाय के जो पुद्गल हैं, उनके क्षयोपशम आदि का अभाव हो जाने से, जिस गुण का प्रकटी करण हो अर्थात् जीव के प्रदेशों में स्वच्छता रूप गुण श्रद्धात्मक हैं और वह वस्त्र के मलिनत्व के अभाव से उज्ज्वलता गुण के समान हैं । वही वास्तव में सम्यक्त्व हैं, जो स्व-आत्मा में होता हैं, यह तात्पर्य हैं ।
यहाँ पर शिष्य का प्रश्न हैं कि - यदि आत्मा मदन कोद्रव के समान मिथ्यात्व के पुद्गलों का ही शुद्ध, अर्ध-विशुद्ध और अशुद्ध के भेदों से तीन पुंज करता हैं, जैसे कि
दर्शन - मोह तीन प्रकार से हैं, जैसे कि- सम्यक्त्व, मिश्र तथा मिथ्यात्व और वे क्रमशः शुद्ध, अर्द्ध-विशुद्ध और अविशुद्ध होते हैं । तो मिथ्यात्व के एक ही अणु, साधक और बाधक गुण में कैसे अन्तर्भाव को प्राप्त करतें हैं ? यदि दोनों में भिन्नत्व हो तो वह योग्य हैं । परन्तु उन पुद्गलों में मदनत्व चला गया हैं, उससे सम्यक्त्व मोहनीय शुद्ध होता है, फिर उनके मदनत्व का क्या हुआ ?
यहाँ पर उत्तर देते हैं कि- चतुर्विध महारस के स्थान में स्थित जो पुद्गल. हैं, उनका मिथ्यात्व बाधक और विभाव हैं, उनके मध्य में कोद्रवों के मदन त्याग के समान महारस के अभाव से अनिवृत्तिकरण से एक स्थानक रस के अवशेष प्रायः रहते, क्रम से परम परिणाम का अनाच्छादक वह सम्यक्त्व मोहनीय हैं । थोड़ी