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________________ २८६ उपदेश-प्रासाद - भाग १ गुरु को छोड़कर, संयम का परिपालन कर और देवत्व को प्राप्त कर तथा वहाँ से च्यवकर वें दिलीप राजा के पाँच सो पुत्र हुए । यौवन अवस्था में वें गजपुर के राजा द्वारा रचित स्वयंवर मंडप में गये थें । इस ओर अंगार मर्दक का जीव बहुत भवों में भ्रमण कर ऊँट के रूप में उत्पन्न हुआ । वह भी उसी नगर में बहुत भार के समूह से आक्रान्त हुआ रोते हुए देखा गया । ऊँट के झन-झन शब्द से अनुकंपा से युक्त हुए चित्तवालें उन्होंने कहा कि- अहो ! पूर्व के कर्म से अनाथ और अशरण यह महा-दुःख का वेदन कर रहा हैं । जो कि श्रीमद्देवेन्द्राचार्य ने कर्म-ग्रन्थ में कहा है कि- गूढ हृदयी, शठ, शल्य से युक्त तिर्यंच के आयुष्य को प्राप्त करता है, इत्यादि चिन्तन करते हुए उन्होंने जातिस्मरण ज्ञान को प्राप्त किया। उस ज्ञान से पूर्व भव के स्व आत्मीय गुरुपने को उसमें जानकर उन राजपुत्रों ने उसे उस भव के दुःखों से दूर किया । भव-नाटक को देखकर राजपुत्रों ने चारित्र ग्रहण करने के द्वारा केवलज्ञान को प्राप्त किया। अंगारमर्दकाचार्य बाह्य से वैरागी था और उसके पाँच सो शिष्य मोक्ष की इच्छावालें थें । दीपक सम्यक्त्ववाले उसने लेश से भी स्व-आत्मा का हित नहीं किया था, इसलिए ही शुभाशय वालों को स्व-आत्मा की ही रुचि धारण करनी चाहिए । अंगारमर्दक यमी और बाह्य से शान्त था तथा पाँच सो मुमुक्षु पद को आश्रित कीएँ हुए थे । अंगारमर्दक ने दीपक सम्यक्त्व से लेश मात्र भी शुभ को प्राप्त नहीं किया था, उससे श्रेष्ठ श्रावक रोचक सम्यक्त्व को हृदय से वहन करें। इस प्रकार से संवत्सर के दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश-प्रासाद ग्रन्थ की वृत्ति में चतुर्थ स्तंभ में साठवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ।
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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