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________________ उपदेश-प्रासाद को डुबाता हैं । यहाँ आवश्यक निर्युक्ति की बृहद्वृत्ति के अनुसार से कहे हुए अर्थ को प्रबन्ध के द्वारा दृढ़ करतें हैं, जैसे कि एक साधु समुदाय में श्रमण गुणों से मुक्त एक योगी प्रतिदिन गोचरी आदि आलोचन के समय में पुनः पुनः आत्मा की निन्दा करता था और प्रतिक्रमण करता था । उसे देखकर बहुत मुनि उसकी प्रशंसा करनें लगें । भाग १ २८८ एक दिन सम्यग् ज्ञानादि से युक्त एक संविग्न साधु आये । उन्होंने भी वैसे करते उस योगी को देखकर अन्यों को यह उदाहरण कहा, जैसे कि एक ऋद्धिमान् गृहस्थ स्व-गृह को रत्नादि से भर कर पुण्य के लिए उसे अग्नि से भस्मसात् किया । तब सभी जन उसकी प्रशंसा करने लगें कि - अहो । रत्नादि में इसकी निर्लोभता । फिर से भी रत्नादि से भरे हुए गृह से भगवान् अग्नि को तर्पण दिया । तब वायु की प्रचंडता से बढ़ती हुई अग्नि की ज्वाला से समस्त गाँव भी भस्मसात् हुआ । राजा ने श्रेष्ठी को दरिद्र कर नगर से निकाल दिया । अन्य भी गाँव में वैसा करते एक व्यापारी को जानकर राजा ने पहले ही अशुभ भविष्य का विचार कर उसे नगर से बाहर किया । उससे सभी सुखी हुए। उस व्यापारी के समान ही यह योगी भी तुम्हारी प्रशंसा और सेवा के योग्य नहीं हैं । यह सुनकर सभी उस बाह्याचारी को छोड़कर स्व-स्व धर्म की आराधना करनें लगें । इसलिए तुम भी अभव्य गुरु को छोड़कर चारित्र का आचरण करो । 1 यह सुनकर विस्मय को प्राप्त हुए वें शिष्य इस प्रकार से सोचने लगें कि- अहो ! रुद्राचार्य का कोई महान क्रिया- दंभ हैं, नित्य सेवा करने पर भी हम आज भी नहीं जान सकें हैं। इस प्रकार से विचारकर और अभव्य
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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