________________
उपदेश-प्रासाद - भाग १
२८७ रुद्रसूरि स्वयं ही, लघुनीति के स्थान में आये । उन कोयले के शब्दों को सुनकर, पुनः पुनः उपमर्दन करने के द्वारा शब्द करते हुए कहने लगा कि-यें अरिहंत केजीव पूत्कार कर रहें हैं । सूरि ने यह वाक्य स्व-शिष्य को प्रत्यक्ष से सुनाया । सूरि ने प्रातः काल में रुद्रसूरि के शिष्यों से कहा कि- अभव्य होने से यह तुम्हारा गुरु सेवा के योग्य नहीं हैं, क्योंकि
सर्प एक मरण को देता हैं, किन्तु कुगुरु अनंत मरण को देता हैं, उससे सर्प को ग्रहण करना श्रेष्ठ हैं, लेकिन कुगुरु की सेवना श्रेयस्कारी नहीं हैं । असंयत माता-पिता और गुरु को वंदन न करें तथा स्वच्छंद राजा और देवताओं की भी सेवना न करें । भ्रष्टाचार सूरि, भ्रष्टाचार की उपेक्षा करनेवाला सूरि और उन्मार्ग में स्थित सूरि, ये तीनों सूरि भी मार्ग का नाश करते हैं।
अनुयोगद्वार सूत्र में बाह्य से आचरण करनेवालें इस प्रकार से कहे गएँ हैं- षट् काय अनुकंपा से रहित जो ये श्रमण गुणों से मुक्त योगी घोड़ों के समान दुर्दम और हाथी के समान निरंकुश, शरीर को परिष्कृत, प्रसाधित, स्निग्ध करनेवालें, श्वेत वस्त्रों को धारण करनेवालें, जिनेश्वरों की आज्ञा से स्वच्छंद और बाहर विहार करनेवालें, उभय काल भी आवश्यक के लिए उपस्थित होते हैं, वह लोकोत्तर द्रव्य आवश्यक ही है, इत्यादि । तथा प्रज्ञापना सूत्र की वृत्ति में इस प्रकार से कहा गया है कि
परमार्थ का संस्तव अथवा सुदृष्ट परमार्थ की सेवना और व्यापन्न कुदर्शन का वर्जन, यह सम्यक्त्व की श्रद्धा हैं।
उससे मिथ्यादृष्टियों की सेवा से स्व-गुणों का च्यवन होता हैं, क्योंकि
जो तप और संयम से हीन, नियम से रहित और ब्रह्मचर्य से परिहीन हैं वह अविरत जीव पत्थर के समान स्वयं ही डुबते हुए अन्य