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________________ २८६ उपदेश-प्रासाद - भाग १ और यक्ष-इनको अभव्य जीव प्राप्त नहीं करते हैं। संगम, कालसूरि, कपिला, अंगारमर्दकाचार्य, दो पालक, नो-जीव की स्थापना करनेवाला गोष्ठामाहिल और उदायी राजा का मारक-यें अभव्य प्रसिद्धि में आए हैं। चारों सामायिकों के मध्य में अभव्य को कभी उत्कृष्ट श्रुत सामायिक का लाभ होता है वो भी साडे नौ पूर्व तक, किन्तु उससे अधिक नहीं । मिथ्यात्व से संयुक्त ये दोनों भी भव्य और अभव्य धर्म-कथन आदि से, आदि शब्द से मातृ स्थान अर्थात् समिति और गुप्ति के अनुष्ठान के अतिशय से दूसरों को बोधित करते हुए अर्थात् शासन को दीपित करते हुए । कारण में कार्य के उपचार से उन दोनों में दीपक सम्यक्त्व होता हैं, यह भावार्थ हैं। इस विषय में यह अंगारमर्दकसूरि का संबंध हैं क्षितिप्रतिष्ठपुर में श्रीविजयसेनसूरि के शिष्य ने रात्रि के समय स्वप्न में पाँच सो हाथियों से घेरे हुए एक सूअर को देखा । प्रातः काल में गुरु के प्रति वैसा ही कहा । उसे सुनकर सूरि ने कहा कि- पाँच सो शिष्यों से युक्त आज एक अभव्य गुरु आयगा । उसी दिन पाँच सो शिष्यों से चरण सेवित रुद्राचार्य वहाँ पर आये । भोजन आदि से उसकी भक्ति कर द्वितीय दिन स्व-शिष्य के संदेह निवारण के लिए उस सूरि के अभव्यत्व को ज्ञापन कराने के लिए लघुनीति के स्थान में गुप्त रीति से सुविहिताचार्य और स्व-शिष्य के द्वारा जले हुए कोयले रखवाये । रात्रि के समय में अभव्याचार्य के शिष्यों ने मात्रा के परिष्ठापन के लिए गति-आगति करते हुए पैर से दब जाने से कोयले की आवाज को सुना । कोयले रूपी द्रव्य को नहीं जानने से जीवों का उपमर्दन जानकर वें सभी पुनः पुनः पश्चात्ताप से स्वआत्मा की निन्दा करने लगें और प्रतिक्रमण करने लगें । तत्पश्चात्
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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