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उपदेश-प्रासाद - भाग १ शंका आदि उत्पन्न होने के कारण से मोहनीय हैं। उसके क्षय हो जाने पर चरम दर्शनी को कदापि शंका आदि अतिचार नहीं होता, इस प्रकार से यह स्थित हुआ।
अब सम्यग्दृष्टियों के ज्ञान के बारे में कहा जाता है, जैसे कि
एक-एक वस्तु सत् आदि अनंत धर्म से युक्त है । श्रद्धावान् ज्ञान-चक्षु से उस सर्व को भी सत्य मानता है । जिससे कि वस्तु के धर्मों को एकान्त से ही कहते हैं, उससे मिथ्यात्वियों की स्वभाविक अज्ञानता जाननी चाहिए ।
प्रत्येक पदार्थ एक-एक वस्तु सत् आदि अनंत धर्मात्मक हैं, जैसे कि-एक घट वस्तु स्व-गुण रक्तत्व आदि से सत् हैं और पर पट आदि पर गुण से असत् है । आदि शब्द से पुद्गलों के साथ एकत्व है और व्यवहार से यह घट है किन्तु निश्चय से पट, लकड़ी, बैलगाडी, स्वर्ण आदि धर्मों से युक्त यह चूर्ण आदि हुआ कदाचित् उनके अभाव से मिलता हैं । जीव भी व्यवहार से गोत्व, गजत्व, स्त्रीत्व, पुरुषत्व से युक्त होता हैं, किन्तु निश्चय से अछेद्य, अभेद्य आदि गुणों से युक्त होने से यह जीव पूर्वोक्त प्रकार से युक्त नहीं है । सम्यक्त्व से सम्यक्त्वियों को सर्वत्र ज्ञान होता है तथा इतरों को अर्थात् मिथ्या-दृष्टियों को उस प्रकार से नहीं हैं, जो कि महाभाष्य में कहा गया हैं कि
सत् और असत् के विशेष रहित होने से, भव के हेतुओं को यथार्थता से प्राप्त नहीं करने से और ज्ञान के फल के अभाव से मिथ्यादृष्टि को अज्ञान होता हैं।
अब सम्यक्त्व में ही बुद्धि के गुण होते हैं, वह इस प्रकार से कहतें हैं
शुश्रूषा, श्रवण आदि बुद्धि के आठ गुण होते है, सम्यक्त्व