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________________ १५ उपदेश-प्रासाद - भाग १ भगवन् ! मैं हृदय से अर्हत् द्वारा कहे हुए मार्ग की श्रद्धा करता हूँ। इसलिए माता-पिता को पूछकर मैं आपके पास प्रव्रज्या ग्रहण करूँगा । सूरि ने कहा कि- हे वत्स ! धर्म में प्रतिबंध मत करना । तत्पश्चात् निज आवास में जाकर और माता-पिता को प्रणाम कर कहने लगा कि- आप दोनों की अनुज्ञा से सूरीश्वर के समीप में मैं प्रव्रज्या को ग्रहण करूँगा । उसे सुनकर माता ने महाबल से कहा कि- हे वत्स ! तुम हम दोनों को प्राण-प्रिय होने से तेरे वियोग को क्षण भी नही चाहतें हैं। उससे तुम इस प्रकार मत कहो ! हे वत्स ! जब तक हम दोनों जीवित है, तब तक तुम अपने गृह में रहो । यह सुनकर कुमार ने अपनी माता से कहा कि- हे माता ! मैं यह नहीं जानता हूँ कि कौन जन पूर्व अथवा पश्चात् मरण को प्राप्त होगा । उससे तुम मुझे अनुज्ञा दो, जिससे कि मैं तुम्हारे कुक्षि से जन्म लेने का फल प्राप्त करूँ ! जैसे पूर्व के अनंत भव में प्राप्त हुई जननीयाँ अनुस्वार के समान हुई हैं, वैसे तुम मत बनों और शुभांक के समान स-अन्वर्थवाली बनो । इत्यादि उक्ति से उसके आग्रह को छोड़ाने में असमर्थ हुए माता-पिता शीघ्र ही उसके दास-भाव को प्राप्त हुए। ___ तत्पश्चात् राजा ने स्नेह से उसे एक दिन अपने राज्य स्थान पर संस्थापित कर और स्वयं एक सो आठ स्वर्ण, देदीप्यमान रत्न और मिट्टीमय कलशों से अभिषेक कर कहने लगा कि- हे वत्स ! अब हम क्या करें? महाबल ने भी कहा कि- हे पिताजी ! मेरे लिए तीन लाख स्वर्ण, कोश में से लाकर कुत्रिका-दुकान में से एक लाख स्वर्ण से पात्रों को, एक लाख स्वर्ण से रजोहरण को और एक लाख स्वर्ण के दान से चार अंगुलों को छोड़कर अग्र केशों को काटनेवालें नाई को ले आओं । उसके बाद उसने भी तुरंत ही वैसा किया । तत्पश्चात् दिव्य चन्दन और आभरणों से भूषित हुआ अंगवाला और हजार मनुष्यों
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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