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उपदेश-प्रासाद - भाग १ सुखकारी होगा, अन्यथा यहाँ शत्रु सीमा भूतल पर पतन से अनर्थ होगा।
यह सुनकर राजा ने कहा कि- हे मित्र ! क्यों तुम इस प्रकार अनंत भव दुःखदायी और विधि विध्वंसक वाक्य कह रहे हो ? अनाभोग आदि से निषिद्ध के सेवन से व्रत की मलिनता रूप से अतिचार ही होता हैं, किंतु जानकर उल्लंघन करने से व्रत-भंग ही होता हैं । अपक्व कुंभ के समान अतिचार से खंडित हुआ व्रत सुखपूर्वक संधान भी किया जा सकता हैं, किन्तु पक्व, भग्न हुआ कुंभ वैसा नहीं हैं । इसलिए आगे पद मात्र गमन की भी सर्वथा ही अनुमति नहीं हैं, क्योंकि
___ इतर मनुष्यों को स्वीकार किया हुआ, जल, धूल, पृथ्वी आदि के ऊपर रेखा के समान ही होता हैं, किन्तु महात्माओं को स्वीकृत किया हुआ पाषाण रेखा के समान होता हैं ।
कटुक द्रव्य के आस्वादन के समान व्रत-उल्लंघन का फल अभी ही आ गया है, इसलिए तुम इस कील से ही वापिस फिराओं। उसकी दृढ़ता की पुनः पुनः प्रशंसा करते हुए कोकास ने गरुड़ को पीछे फिराने में प्रयुक्त किया, उतने में ही दोनों पाँखों के मिल जाने से वह नीचे गिर पड़ा, परंतु भाग्य से सरोवर में गिरने से अभग्न अंगवालें उन्होंने तीर प्रदेश को प्राप्त किया । वहाँ समीप में काञ्चनपुर को देखकर रथकार ने स्वामी को शिक्षा दी कि-हे राजन् ! आप यहाँ पर सावधानता से रहो, जिससे कि कोई भी नजान सकें । मैं इस नगर में रथकार के गृह में जाता हूँ। इस प्रकार से कहकर निःशंक ही राज-मान्य रथकार के गृह में आकर कोकास ने कील घड़ने के लिए विशिष्ट उपकरणों की याचना की । वह रथकार भी रथ के चक्र करण की सामग्री को मध्य में रखकर उनको लाने के लिए जब वह