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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ २८१ घर के अंदर गया, तब कोकास ने उससे अधिक दिव्य चक्र का निर्माण किया, हाथ से छोड़ा हुआ जो सदा आघात के बिना स्वयं ही जाता हैं। अब आकर रथकार उस असाधारण कला को देखकर सोचने लगा कि- निश्चय से यह कोकास ही हैं, पृथ्वी के ऊपर उसके बिना अन्य को यह दिव्य कला कहाँ से हो ? इस प्रकार से निश्चयकर और किसी प्रपञ्च से वहाँ उसका संरक्षण कर राजा के समीप में जाकर सूत्रधार ने कहा कि- हे राजन् ! पुण्य से कहीं से कोकास मेरे गृह में आया हैं । यह सुनकर निज पुरुषों से उसे लाकर राजा ने इस प्रकार से पूछा कि- तुम्हारा स्वामी कहाँ हैं ? मारने के भय से, अत्यंत पटु बुद्धिवाले उसने भी थोड़ा चित्त में विचारकर स्व राजा की स्थिति और स्थान कहें । कनकप्रभ ने सैन्य के साथ वहाँ जाकर उसे बाँधा और विडंबना पूर्वक काष्ठ के पिंजरे में डाला । कलिंग का राजा उसे अन्न मात्र भी नहीं देता था । दया सहित मनवालें बहुत लोग राजा के भय से पुण्य के लिए कौवें के दान के बहाने से पिंड देने लगें। इस प्रकार कौवें के पिंड से प्राण-धारण करते हुए कभी-भी दुःखों को प्राप्त नहीं करनेवाले राजा ने स्व कर्म की निन्दा करते हुए दिनों को व्यतीत कीये । क्योंकि यहाँ पर कौन सदा ही सुखी हैं ? अथवा किसकी लक्ष्मी स्थिर हैं ? कौन मृत्यु से ग्रहण नहीं किया गया हैं ? कौन विषयों में गृद्ध नहीं हैं? एक बार राजा कोकास के वध के लिए सज्ज हुआ, तब लोगों ने कहा कि- हे स्वामी ! कील के लिए महल-भंग के समान यह आपको योग्य नहीं हैं। उत्तम पुरुष गुणों में स्व-पर विभाग का चिन्तन नहीं करते हैं, क्योंकि
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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