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उपदेश-प्रासाद - भाग १ कभी-भी इस प्रकार से नही होता है । इत्यादि धर्मवाक्य को सुनकर राजा ने दर्शन मूलवाले बारह व्रतों को ग्रहण दिग्विरति व्रत के विषय में दिन के प्रति एक सो योजन से ऊपर गमन का नियम लिया था। एक दिन काष्ठ गरुड़ के पीठ ऊपर आरोहण कर यशोदेवी नामक अग्रमहिषी के साथ में गमन करने के मनवाले राजा को जानकर विजया नामक सौत स्त्री ने रोष से अन्य के समीप में मूल कील का संग्रह कर उस रूपवाली ही अन्य कील कराकर वैसे ही स्थापित की थी। क्योंकि
स्त्रियाँ उन्मत्त प्रेम की उग्रता से जो आरंभ करती हैं, उसमें विघ्न करने में ब्रह्मा भी कायर होता हैं।
___ कोकास और यशोदेवी के साथ में काष्ठ-गरुड़ के ऊपर आरोहण कर आकाश का उल्लंघन करते हुए राजा ने दिग्विरति व्रत का संस्मरण कर कहा कि- हे मित्र ! हमने कितने मात्र में क्षेत्र का उल्लंघन किया हैं ? उसने कहा कि- हे स्वामी ! दो सो योजन व्यतीत हुए हैं । उसे सुनकर राजा ने खेद सहित कहा कि- पीछे फिराओ, फिराओ ! व्रत को जानकर निषिद्ध के आचरण से मूल से ही भंग होता हैं और व्रत को जाने बिना ही ओघ से गमन करना अतिचारकारी है तथा वह प्रतिक्रमण आदि से शुद्ध होता हैं । हा! हा ! कुतूहल-प्रिय मुझे धिक्कार हो, धिक्कार हो जिसने आत्मा के हित को भी नहीं जाना हैं । इत्यादि सर्वस्व गये के समान वह अत्यंत शोक करने लगा । तब रथकार का स्वामी कोकास जब गरुड़ को पीछे फिराने के लिए कील को ग्रहण करने लगा, तब अन्य कील का निश्चयकर चिन्तातुर हुआ कहने लगा कि- हे देव ! दुर्भाग्य के वश से किसी दुष्ट ने कील का परावर्तन किया हैं और उसके बिना यह पीछे गमन नहीं कर सकता हैं । यदि इसके आगे कितना मात्र ही क्षेत्र गमन किया जाये तो सर्व