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________________ २७१ उपदेश-प्रासाद - भाग १ जिसने बेर पेड़ों के वन में निवास करनेवाले लालफणाओंवाले सर्प को क्षिति-शास्त्र से गिराया था, वह यह महान् क्षत्रिय हैं । जिसने चक्र के द्वारा खोदी हुई और कलुष पानी को वहन करनेवाली गंगा को अपने बायें पैर से रोका था, वह यह महान् क्षत्रिय हैं । जिसने कलशीपुर में निवास करनेवाली और शब्द करनेवाली सेना को बायें हाथ से रोकी थी, वह यह महान् क्षत्रिय हैं। उससे यह वीरक इस केतुमञ्जरी के योग्य हैं, इस प्रकार से कहकर कृष्ण ने इच्छा नहीं करते हुए भी उस वीरक को वह कन्या दी। वीरक भी कृष्ण के भय से उससे विवाह कर और स्व-गृह में ले जाकर सेवा में तत्पर हुआ । वह बहुत दिनों के बाद कृष्ण के समीप में आया । कृष्ण ने उससे पूछा कि- क्या मेरी पुत्री तेरी आज्ञा का पालन कर रही है अथवा नहीं ? वीरक ने कहा कि - मैं आपकी पुत्री की आज्ञा का पालन कर रहा हूँ। कृष्ण के द्वारा उसका अत्यंत धिक्कार कीये जाने पर, वह वीरक गृह में जाकर उससे कहने लगा कि-रे, तुम कलश को तैयार करो, गृह को साफ करो और जलाशय से जल लेकर आओ । पूर्व में नहीं सुने हुए को सुनकर उसने कहा कि- हे स्वामी! मैं कुछ-भी नहीं जानती हूँ । वीरक ने रस्सी से उसे गाढ रीति से मारा। वह रोती हुई पिता के आगे कहने लगी। कृष्ण ने कहा कि- तूंने ही दासत्व को माँगा था । उसने कहा कि- हे पिताजी ! मैं इसके गृह में नहीं रहूँगी । अब आपकी कृपा से मैं स्वामिनी ही होऊँगी । कृष्ण ने वीरक को अनुज्ञापन कर उसे प्रव्रज्या ग्रहण करायी किन्तु स्वयं ही अप्रत्याख्यान कषाय के उदय से युक्त होने से व्रत आदि के ग्रहण में असमर्थ हुआ था। एक दिन श्रीनेमिजिन ने रैवतक के ऊपर समवसरण किया था, तब स-परीवार कृष्ण वंदन करने के लिए गया । उसने अठारह
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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