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________________ २७२ उपदेश-प्रासाद - भाग १ हजार साधुओं के गण को द्वादशावर्त-वंदन से वंदन किया । अन्य राजा श्रान्त हुए स्थित हुए । किन्तु वीरक कृष्ण की अनुवृत्ति से ही उसके साथ में द्रव्य से वंदन करने लगा । पसीने से भीगे हुए शरीरवाले कृष्ण ने श्रीनेमि से कहा कि- मैं तीन सो और साईठ संग्रामों से ऐसे श्रम को प्रास नहीं हुआ था । भगवान् ने कहा कि- हे कृष्ण ! तूंने सप्तक के क्षय से क्षायिक और आगामिक चौबीसी में बारहवाँ अमम नामक और पश्चानुपूर्वी से तेरहवाँ तीर्थंकर नामकर्म का उपार्जन किया हैं तथा सातवीं पृथ्वी के योग्य आयुकर्मको तृतीय में ला दिया हैं । यह सुनकर उसने कहा कि- मैं पुनः भी वंदन कर उसे भी दूर करूँगा । जिन ने कहा कि- उस समय का निःस्पृहत्व भाव तो तभी चला गया था, परंतु तूंने जगत् में सर्व उत्तम पदार्थों को स्वीकृत कीये है, इसके आगे भी तुम और किसकी इच्छा कर रहे हो ? पूर्व निदान से तृतीय नरक का आयुष्य तो बद्ध वासुदेव पद के आधीन है, उसका अभाव नहीं हो सकता, क्योंकि- राम(बलदेव) निदानरहित कीये हुए होतें हैं इत्यादि वचन से । उस भगवान् के वाक्य को निश्चलता से मानता हुआ कृष्ण स्व गृह में गया। यहाँ पर शिष्य का प्रश्न है कि- हे पूज्य ! तृतीय नरक में तो उत्कृष्ट से सात सागरोपम का आयु कहा गया हैं । नेमि जिन का और होनेवाले बारहवें तीर्थंकर अमम नामक कृष्ण के जीव का अन्तर अडतालीस सागरोपम हैं, वह एक भव से कैसे पूर्ण हो? इसका उतर देते है कि-श्रीहेमचन्द्राचार्य कृत नेमिचरित्र में पाँच भव कहे हुए हैं, तत्त्व को केवली जानतें है । शुद्ध श्रद्धा गुण से युक्त श्रीकृष्ण शीघ्र से भव के पार को प्राप्त करेगा । वसुदेव-हिंडी में तो-कृष्ण तीसरी पृथ्वी से बाहर निकलकर भरतक्षेत्र में शतद्वार नगर में मांडलिक के भव को प्राप्त कर और प्रव्रज्या का स्वीकार कर तीर्थंकर नाम बाँधकर
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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