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________________ २७० उपदेश-प्रासाद - भाग १ कृष्ण ने उसे सर्वत्र अवारित प्रवेशवाला कर नेमि को वंदन करने के लिए गया । धर्म को सुनकर उसने कहा कि- हे स्वामी ! मैं भागवती दीक्षा और व्रत ग्रहण करने के लिए असमर्थ हूँ, तो भी अन्य कोई लेगा तो मैं उसका महोत्सव करूँगा । इस प्रकार के अभिग्रह से वह घर पर आया । एक दिन विवाह के योग्य निज पुत्रियाँ प्रणाम करने के लिए आयी । कृष्ण ने उनसे पूछा कि- तुम को वशवर्ती स्वामिनी होना है अथवा दासी बनना है ? उन्होंने कहा कि- आपकी कृपा से हम स्वामिनी होंगी । कृष्ण ने भी कहा कि- यदि ऐसा है तो तुम विनम्रों को सम्मत ऐसे उत्तम व्रत को नेमिनाथ के समीप में ग्रहण करो । इस प्रकार से सुनकर उन सभी ने महाव्रत लिये । ___एक दिन एक रानी ने अपनी पुत्री को शिक्षा दी कि- तुम पिता से इस प्रकार से कहना कि मैं दासी होऊँगी । एक बार राजा ने पुत्री से पूछा, तब उसने सीखाया हुआ उत्तर दिया । तब कृष्ण ने सोचा कि- इसके समान ही मेरी अन्य भी पुत्री संसार में न गिरें, इसलिए मैं इसे इसके सीखाएँ दासीत्व फल को ही देता हूँ । इस प्रकार से सोचकर कृष्ण ने रहस्य में वीरक से पूछा कि- अरे ! पूर्व में तूंने जिस किसी-भी अद्भुत कार्य को किया हुआ हो, उसे तुम निवेदन करो। तब उसने कहा कि- देह-चिन्ता करते हुए मैंने बेर पेड़ के शिखर के ऊपर रहे हुए गिरगिट को मिट्टी के ढेले से मारकर नीचे गिराया था। तथा वर्षा में बैल-गाडी के मार्ग में चक्र से उखाडे हुए और पानी को वहन करनेवाले गड्डे से बाहर जाते हुए पानी को बायें पैर से रोका था। तथा पांजनी-पात्र में प्रविष्ट हुई और गुम-गुम शब्द करती हुई मख्यिों के समूह को मैंने दोनों हाथों से रोकी थी। यह सुनकर कृष्ण थोड़ा हँसा और सभा में स्थित होकर कहने लगा कि- तुम वीरक के चरित्र और कुल के बारे में सुनो
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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