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उपदेश-प्रासाद - भाग १
२६८ सर्व भी लब्धियों से संपन्न, वज्र ऋषभ नाराच संघयण और समचतुरस्र संस्थानवालें थें ।
इस प्रकार से संवत्सर-दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश-प्रासाद की वृत्ति में चतुर्थ स्तंभ में सत्तावनवाँ व्याख्यान संपूर्ण हुआ।
अट्ठावनवाँ व्याख्यान अब यहाँ पर कितने ही अन्य भी सम्यक्त्व के भेदों का निरूपण किया जाता हैं
जीव-तत्त्व की श्रद्धा से सम्यक्त्व एक प्रकार से होता है और निश्चय-व्यवहार से सम्यक्त्व दो प्रकार से माना गया हैं।
केवल अनंतर कहे हुए सम्यक्त्व के इकसठ भेद व्यवहारदृष्टि के अंतर्गत होते हैं । अन्त्य छह भेद निश्चय के अन्तर्गत होते हैं । अब यह सम्यक्त्व पाँच प्रकार से होता है, जैसे कि- औपशमिकी, सास्वादन क्षायोपशमिक, वेदक और क्षायिक-इस तरह से पाँच प्रकार से हैं।
वहाँ प्राणी के कर्म-ग्रन्थि के भेदित होने पर प्रथम सम्यक्त्व लाभ में अन्तर्मुहूर्त तक औपशमिक सम्यक्त्व होता हैं । तथा शांतमोहवालें मुनि को उपशमश्रेणि से मोह के उपशम से उत्पन्न हुआ द्वितीय औपशमिक सम्यक्त्व होता हैं।
सम्यक्त्व को प्राप्त कर तत्काल ही उदीर्ण हुए अनंतानुबंधि से उसे वमन करता हुआ भवी जो उसके रस-आस्वाद को प्राप्त करता है वह सास्वादन नामक सम्यक्त्व जघन्य से एक समय तक और उत्कर्ष से छह आवली तक होता है ।