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उपदेश-प्रासाद भाग १
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मुक्ति अवस्था में - लोकाग्र में रहे हुए जीव को, प्रिय-अप्रिय अर्थात् सुख-दुःख, स्पर्श नहीं करतें हैं । यह कैसे प्राप्त किया जाता हैं ? तो कहतें हैं कि- ज्ञान, दर्शन, चारित्र रूप रत्नत्रय के भाव से वह प्राप्त किया जाता हैं । जो कि दर्शन-सप्ततिका में कहा गया है कि
सम्यक्त्व, ज्ञान और चारित्र संपूर्ण मोक्ष साधन के उपाय हैं, उससे यहाँ पर स-शक्ति से ज्ञात हुए तत्त्वों में प्रयत्न युक्त हैं ।
तथा
जो प्रधान मुनि धर्मशीलवालें हैं वे नियम से ही दुःख-हीन होतें हैं शीघ्र से परमार्थ तत्त्व को प्राप्त कर वे सुख के एक रूपवाले मोक्ष में जातें हैं ।
इत्यादि युक्तिओं से प्रतिपादित कीये गये प्रभास ने निज संशय को छोड़कर तीन सो छात्रों के साथ में जिन के समीप में दीक्षा ग्रहण की। सोलह वर्षीय प्रभास ने गृहस्थ पर्याय को छोड़कर सर्वविरति का स्वीकार किया । आठ वर्ष तक छद्मस्थ पर्याय को भोगकर निरावरण, निर्व्याघात केवलज्ञान को प्राप्त किया । सोलह वर्ष तक बहुत भव्यों को प्रतिबोधित कर केवली ने जिसके लिए उद्योग किया था, उसी सौख्य को भोगा । इस प्रकार से संक्षेप से सर्व गणधरों का यह वक्तव्य हुआ ।
महावीर स्वामी के विद्यमान होते नव गणधरों ने निर्वाण को प्राप्त किया तथा महावीर के निर्वाण के पश्चात् इंद्रभूति और सुधर्मा स्वामी ने राजगृह में निर्वाण को प्राप्त किया । इसप्रकार से यह आवश्यक निर्युक्ति में है । बाल्य काल में भी चारित्र पद को ग्रहण कर जिन्होंने प्रभु से पहले निर्वृत्ति को प्राप्त की थी, मुनियों में श्रेष्ठ वें प्रभास मेरे प्रचुर उदय के लिए हो ।
सर्व भी गणधर एक मास तक पादोपगमन को प्राप्त हुए तथा