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________________ उपदेश-प्रासाद - भाग १ गया हैं। और उसका वर्णन विशेषता से वृत्तिकार के द्वारा किया गया है और वह भाव-मंगल के हाने से, सर्वविघ्नों का विनाशक होने से तथा सर्व कल्याणों का निबन्धन होने से आदेय हैं। इस प्रकार प्रति-प्रभात में जिनेश्वरों के सुंदर अतिशयों की समृद्धि को जो मनुष्य स्मरण करते हैं, वें कल्याणों से अत्यंत श्रेष्ठ होतें हैं। इस प्रकार से संवत्सर के दिन परिमित उपदेश-संग्रह नामक उपदेश-प्रासाद ग्रन्थ की वृत्ति में इस प्रथम स्तंभ में जिन-नमस्कार करण और अतिशय वर्णन रूप मांगल्य आख्यान प्रथम कहा गया हैं। द्वितीय-व्याख्यान यहाँ पहले सर्व संपत्तिओं के निधान, सर्व गुणों में प्रधान और समस्त धर्मकृत्यों का कारण ऐसे सम्यग्दर्शन को कहतें हैं कि जिनेश्वरों में ही देवत्व की बुद्धि और सुसाधुओं में ही गुरुत्व की बुद्धि । तथा अरिहंतों के धर्म में ही धर्म की बुद्धि, उसे सम्यग् दर्शन कहते हैं । जिनाः- राग-द्वेष को जीतनेवालें होने से जिन कहलातें हैं और वें नाम, आकृति, द्रव्य, भाव के भेदों से भिन्न होतें हैं। उनमें ही देवपने की बुद्धि । भवात्-संसार से आत्मा को मुक्त करने की इच्छा करतें हैं अर्थात् मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा करतें हैं वें सुसाधु कहें जातें हैं, उनमें ही गुरुपने की बुद्धि । तथा अरिहंतजिनेश्वर के धर्म में, अर्थात्- दुर्गति में पड़ते हुए जन्तुओं को धारण करता है, वह धर्म कहलाता है, उसमें धर्मपने की बुद्धि अर्थात् धर्मपने में रुचि वह सम्यग् दर्शन कहलाता है । जो कि दर्शन शब्द से विलोचन, विलोकन आदि कहे जातें हैं, तो भी यहाँ शास्त्र में
SR No.006146
Book TitleUpdesh Prasad
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandsuri, Raivatvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages454
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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